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होती। वे अपने मत को विलायती मानने के लिये प्रस्तुत न थे। लीक छोड़कर अपनी उद्भावित नई सरणि से उसी लक्ष्य की ओर चलना, यदि 'विलायती' का लक्षण है तो वैसा काव्य-चिंतन जैसा भरत से पंडितराज तक हुआ, कभी न हो सकेगा। पूर्ववर्ती आचार्यों के मत का खंडन करने में जैसी पदावली का व्यवहार कहीं कहीं परवर्ती आचार्यों ने किया है और उनके मत को भ्रामक, अशुद्ध अदि बतलाया है, वह भी तो आचार्य शुक्ल में नहीं हैं। बड़ी शिष्टता के साथ अपनी असहमति उन्होंने व्यक्त की है। यदि कोई इहठधर्मिता को त्याग कर उन्हें देखे तो वे भरत, अभिनव, मम्मट आदि की ही परंपरा में उसे दिखाई देंगे।

रस मीमांसा के प्रस्तुत करने में जिन ग्रंथ और व्यक्तियों से सहायता मिली है उनके प्रति संपादक चिरकृतज्ञ हैं। इस ग्रंथ के संपादन में सबसे अधिक सहायता मेरे प्रिय शिष्य बटेकृष्ण ने की है। यदि उनकी अयाचित सहायता न मिलती तो अभी कितने दिनों यह ग्रंथ और पड़ा रहता, कई नहीं सकता। पुस्तक प्रतुत हो गई। भूल-चूक का सारा उत्तरदायित्व मुझ पर हैं। शुक्लता आचार्य-प्रवर की, श्यामता मेरी।

ब्रह्मनाल, काशी विश्वनाथप्रसाद मिश्र
अनंत चतुर्दशी, २००६ वि०