पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१५०

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विभाव १३१ की सुची देखकर यह तो हरएक कर सकता है। यह चित्रण नहीं है। इन्हीं वस्तुओं और व्यापारों को लेकर यदि हम इस प्रकार योजना करें-“वह देखो, मौरों से गुछी, मंद-मंद भूमती हुई श्राम की डाली पर, हरो-हरी पत्तियों के बीच अपने कृष्ण कलेवर को पूर्ण रूप से न छिपा सकती हुई कोयल बोल रही है ! तो यह दृष्य अंकित करने का प्रयत्न कहा जायगा । किसी वस्तु का वर्णन जितनी ही अधिक वस्तुओं के संबंध को लिए हुए होगा उतना ही वह पेचीला होगा, और कवि के निरीक्षण की सूक्ष्मता प्रकट करेगा। इस दृष्टि से प्राचीन कवियों के वर्णनों का विचार करने पर इस बात का पता लग जायगा। देखिए, जाल्मीकि के 'मुक्तासकाशं वाले श्लोक में पानी की बूंदों का आकाश से गिरना, गिरकर पत्तों की नोक पर लगना और चिड़ियों के पंखों को बिगाड़ना, चिड़ियों का पत्तों की नोक पर लगी बूंदों को पीना, इतने अधिक व्यापार एक संबंध-सूत्र में एकत्र पिरोए हैं। इसी प्रकार कालिदास ने हिमालय के पवन के साथ भागीरथी के जल-कण का फैलना, देवदारु के पेड़ों का कपना, मोर की पूँछों का छितराना, किरातों का मृगों की खोज में निकलना और वायु-सेवन करना, इतने व्यापारों को परस्पर संबद्ध दिखाया है। पर इतनी अधिक संश्लिष्ट योजना के प्रत्य- म्तीकरण के लिये विस्तृत और गूढ़ निरीक्षण अपेक्षित है। ऊपर १[ मुकासकाशं सलिलं पतद्वै सुनिर्मलं पत्रपुटेषु लग्नम्। हृष्टा विवच्छदना विइङ्गाः सुरेन्द्र दत्तं तृषिताः पिबन्ति ।। —बाल्मीकीय रामायण किष्किघाकांड ] २ [ भागीरथीनिर्भरशीकराए वोदा मुटुःपितदेवदारूः । यद्वायुरन्विष्टमृगैः किरातैरासेव्यते किंमशिखण्डिबईः ।। ... -कुमारसंभव, १-१५ ।}.