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रस-मीमांसा



गोस्वामी तुलसीदासजी का जो चित्रकूट-वर्णन दिया गया है उसमें यह बात कुछ कुछ है। “सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु-रँगमगे सृंगनि'' में यों ही काले बादल का नाम नहीं ले लिया है ; वह ऊपर उठे हुए शृग पर दिखाया गया है, और वह श्रृग भी गेरू के रंग में रँगा हुआ है। इसी प्रकार ''जल-जुत बिमल सिलनि झलकत नभ-वन-प्रतिबिंब तरंग'' में शिलाओं का धुलकर स्वच्छ होना, उन पर बरसाती पानी का लगना, स्वच्छता के कारण उनमें आकाश और बन का प्रतिबिंब दिखाई पडना इतनी बातों की एक वाक्य में संबंध-योजना पाई जाती है ।

जायसी से कवियों के एक और झुकाव का पता लगता है। ‘कवि' और 'सयाने' जब एक ही समझे जाने लगे तब मनुष्य के व्यवसाय विशेष की जानकारी का खजाना भी काव्यों में खुलने लगा । घोड़ों का वर्णन है तो घोड़ों के पचासों भेदों के नाम सुन लीजिए; जिन्हें शायद घोड़ों के व्यवसायी ही जानते होंगे । भोजन का वर्णन है तो पूरी, कचौरी, कढ़ी, रायता, चटनी, मुरब्बा, पेड़ा, बरफी, जलेबी, फेनी, गुलाबजामुन आदि जितनी चीजों के नाम कविजी जानते हैं सब मौजूद ! इन व्यंजनों को सामने रखने से पाठकों को ललचाने के सिवा और क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? पर काव्य भूख जगाने के लिये तो है नहीं। जिसे रोग आदि के कारण भोजन से अरुचि हो गई होगी वह किसी अच्छे वैद्य के नुस्खे का सेवन करेगा। भोजन की पत्तल का वर्णन करना प्राचीन कवि भद्दापन और काव्य-शिष्टता के विरुद्ध समझते थे। इसी से उन्होंने दृश्यकाव्य में भोजन के दृश्य का निषेध किया है। नामावली की इस प्रथा का अनुसरण जायसी, सूरदास, सूदन और महाराज रघुराजसिंह ने अधिक किया है। अस्त्र-शस्त्रों और पहरावों के नामों की फेहरिस्त