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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा जब केशवदासजी का यह हाल है तब फुटकर पद्य कहनेवाले उनके अनुयायी ‘कविंदों में प्रकृति का रूपविश्लेषण ढूँढना ही व्यर्थं है। ऋतु-वर्णन की पुरानी रीति उन्होंने निवाही है। उनके वर्णन में उद्दीपन भर के लिये फुटकर वस्तुएँ आई हैं; सो वे भी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि की भीड़ में छिपी हुई हैं। वसंत कहीं राजा होकर आया है, कहीं फौजदार, कह फकीर; कहीं कुछ, कहीं कुछ। किसी ने कुछ बढ़कर हाथ मारा तो शिशिर • और ग्रीष्म ऋतु में जो अपने शरीर की दशा देखी उसका वर्णन कर दिया, और उपचार का नुस्खा कह गएग्रीषम की गजब धुकी है धूप घाम घाम, गरमी झुकी है जाम-नाम अति तापिनी । भीजे खस बीजन डुलाए ना सुखात सेद, गात ना सुहात, वात दावा सी इरापिनी । ग्वाल कवि कहे कोरे कुंभन में कूपन ते लै लै जलधार बार-बार मुख थापिनीं । जब पियो तब थियो, अब पियो फेरि अब, पीवत हू पीवत बुझे न प्यास पापिनी ।। गरमी के मौसम के लिये एक कविजी राय देते हैं सीतल गुलाबजल भरि चइन में, डारि के कमल-दल न्हाइवे को पॅसिए । कालिदास अंग-अंग अगर-अतर-संग, | केसर, उसीर-नीर, घनसोर बँसिएः ।। जेठ में गोबिंदलाल चंदन के चलन भरि-भरि गोकुल के महलन बसिए । ।