पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१५४

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। विभाव १३१ मेरे कहने का अभिप्राय यह नहीं कि इन कवियों में कहीं प्रकृति का निरीक्षण मिलेगा ही नहीं। मिलेगा, पर थोड़ा, और वह भी बहुत हूँढ़ने पर कहीं एकाध जगह । जैसेबृष को तरनि-तेज सइसी किरन तपै, चालनि के नाल बिकराल बरसत है। तचति घरनि, जग झुरत रनि, सीरी। | छाँह को पकरि पंथी, पंछी बिरमत है। 'सेनापति' नेक दुपद्दी दरकत होत घमका* विषम, जो न पात खरकत है। मेरे जान, पौन सीरे ठौर को पकरि कोऊ, घरी एक बैठि कहूँ घामै वितबत है ॥ नंदुद्दासजी एक प्रसिद्ध कृष्णभक्त और कवि थे। पर ब्रजभूमि की महिमा का बखान करते समय दृश्य अंकित करने के बखेड़े में वे भी नहीं पड़े। वहाँ चिरवसंत रहता है, इतने ही में अपना मतलब सवको समझा दिया श्रीवृंदावन चिदछन, कछ छवि बरनि न जाई; कृष्ण ललित लीला के काज गद्दि रह्यो जताई। जहँ नग, खग, मृग, लता, कुंज, बीर, तृन जेते ; नईिन काल-गुन, प्रभा सदा सोभित ६ तेते । सकल जैतु अविरुद्ध जहाँ, इरि मृग सँग चरहीं ; कामः क्रोधमद्-भ-रहित लीला अनुसरहीं। सन् दिन रद्दत वसंत कृष्ण-अवलोकनि लोभा ; त्रिभुवन कानन जा बिभूति करि सोभित सोभा । या बन की बर बानिक या बन री बनि आवै ; सेस, महेस, सुरेस, गनेस ने पारहिं पावै ।

  • घमका = इवा का गिरना या ठहर जाना।