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रस-मीमांसा

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इस-मीमांसा भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से हमारी भाषा नए मार्ग पर आ खड़ी हुई ; पर दृश्य-वर्णन में कोई संस्कार नहीं हुआ। वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों की प्रणाली का अध्ययन करके सुधार का यत्न नहीं किया गया। भारतेंदुजी का जीवन एकदम नागरिक था । मानवी प्रकृति में ही उनकी तल्लीनता अधिक पाई जाती है ; बाह्य प्रकृति के साथ उनके हृदय का वैसा सामंजस्य नहीं पाया जाता । 'सत्यहरिश्चंद्र में गंगा का और 'चंद्रावली' में यमुना का वर्णन अच्छा कहा जाता हैं। पर ये दोनों वर्णन भी पिछले खेवे के कवियों की परंपरा के अनुसार ही हैं। इनमें भी एक एक साथ कई वस्तुओं और व्यापारों की सूक्ष्म संबंध-योजना नहीं है, केवल वस्तुओं और व्यापारों के पृथक् पृथक कथन के साथ उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का प्राचुर्य है। दोनों के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोति ; बिच-बिच छहरति बूंद मध्व मुक्ता:मनि पद्धति ॥ लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत ; जिमि नरगन मन विविध मनोरथ करत, मिटावत । कहूँ बँधे नवघाट उच्च गिरि बरसम सोहत ; फहुँ छतरी, कहुँ मढ़ी बढी मन मोहत जोइत । घवल धाम चहुँ ओर फरहत धुना-पताका ; घरत घंटा-धुनिं घमकत घसा करि साका । कहुँ सुंदरी नाति, नीर कर जुगल उछारत ; जुग अंबुन मिलि मुक्त-गुच्छ मनु सुच्छ निकारत । भोवति सुंदरि बदन करने अति ही छबि पावत ; चारिधि नाते सुसि-कलंक मन् कमल मिंदावत ।