पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१५६

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विभाव 14 तरनि तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु छाए, झुके कूल सों जल परसन-हित मनहुँ सुहाए। किधी मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज सभा; के प्रनवत जल जानि परम पावन फल-लोभा । मनु तप वारन तीर को सिभिटि सबै छाए रहत; कै इरि सेवा-हित नै रहे, निरखि नैन-मन सुख लद्दत । कहूँ तीर पर अमल कमल सोभित बहु भाँतिन ; कहुँ सैधालन-मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन । | मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज-सोभा ; के उमँगे प्रिय-प्रिया-प्रेम के अनगिन गोमा । के करिकै कर बहु पीय को टेरत निन दिग सोई ; के पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोइई । के पिय-पद-उपमान मानि यहि निज उर धारत ; के मुख करि बहू भूगन-मिस अस्तुति उच्चारत । के ब्रज-तियगन-बदन-कमल की झलकति झाई । कै अज हरि पद-परस-हेतु कमला बहु आई। देखिए, यमुना के वर्णन में ‘सैवालन-मध्य कुमुदिनी' में दो बस्तुओं की संबंध-योजना थी ; पर आगे चलकर जो ‘उत्प्रेक्षा' . और ‘संदेह' की भरमार हुई तो उसमें अलग अलग कुमुद और कमल ही रह गए, और वे भी अलंकारों के बोझ के नीचे दबे हुए। | इन उद्धृत कविताओं में कहीं प्रकृति के स्थूल और सूक्ष्म रूपों के नूतन उद्घाटन का प्रयत्न नहीं दिखाई पड़ता, सारा वर्णन परंपराभुक्त है अतः चमत्कार लाने के लिये अलंकारों से लादा गया है।