पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१६०

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विमान विद्रुम आदि के लाने का मुख्य उद्देश्य वर्ण, आकृति आदि का ज्ञान कराना नहीं, बल्कि कल्पना में साथ साथ इन्हें भी रखकर सौंदर्यगत आनंद के अनुभव को तीव्र करना है। काव्य की उपमा का उद्देश्य भावानुभूति को तीव्र करना है, नैयायिकों के ‘गोसदृशो गवयः' के समान ज्ञान उत्पन्न कराना नहीं । इसे दृष्टि से विचार करने पर कई एक प्रचलित उपमान बहुत खटकते हैं—जैसे, नायिका की कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिये सिंहिनी को सामने लाना, जाँवों की उमा के लिये हाथी की सँड़ की ओर इशारा करना । खैर, इसका विवेचन उपमा आदि अलंकारों पर विचार करते समय कभी किया जायगा। अब प्रस्तुत विषय की ओर आता हूँ। मनुष्य की आकृति और मुद्रा के चित्रण के लिये भी काव्यक्षेत्र में पूरा मैदान पड़ा है। आकृति-चित्रण का अत्यंत उत्कष वहाँ समझना चाहिए जहाँ दो व्यक्तियों के अलग अलग चित्रों में हम भेद कर सकें। जैसे, दों सुंदरियों की आँख, कान, नाक, भौं, कपोल, अधर, चिबुक इत्यादि सब अंगों को लेकर हमने वर्णन द्वारा दो अलग अलग चित्र खींचे। फिर दोनों वर्णनों को किसी और के हाथ में देकर हमने उन दोनों स्त्रियों को उसके सामने बुलाया। यदि वह बतला दे कि 'यह इसका वर्णन है। और ग्रह उसका' तो समझिए कि पूर्ण सफलता हुई। योरप के उपन्यासों में इस ओर बहुत कुछ प्रयत्न दिखाई पड़ता है; पर हमारे यहाँ अभी इधर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। मुद्रा चित्रित करने में गोस्वामी तुलसीदासजी अत्यंत कुशल दिखाई पड़ते हैं। मृग पर चलाने के लिये तीर खींचे हुए रामचंद्रजी को देखिए ...। "जटा मुकुट सिर, सारसनयननि गाई तकत सुभौंह सिकोरे ।' १०