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रस-मीमांसा

१४६ हैं। मुझे ऐसा भान हुआ कि मैं प्राचीन उज्जयिनी की किसी वीथिका में आ निकला हूँ। इतने ही में थोड़ी दूर चलकर म्युनिसिपैलिटी की लालटेन दिखाई दी। बस, सारी भावना हवा हो गई।

इतिहास के अध्ययन से, प्राचीन आख्यानों के श्रवण से, भूतकाल का जो दृश्य इस प्रकार कल्पना में बस जाता है वह वर्तमान दृश्यों को खंडित प्रतीत होने से बचाता है, वह उन्हें दीर्घ काल-क्षेत्र के बीच चले आए हुए अतीत दृश्यों के मेल में दिखाता है, और हमारे ‘भावों 'को काल-बद्ध न रखकर अधिक व्यापकत्व प्रदान करता है। हम केवल उन्हीं से राग-द्वेष नहीं रखते जिनसे हम घिरे हुए हैं, बल्कि उनसे भी जो अब इस संसार में नहीं हैं, पहले कभी हो चुके हैं। पशुत्व और मनुष्यत्व में यही एक बड़ा भारी भेद है। मनुष्य उस कोटि की पहुँची हुई सत्ता है जो उस अल्प क्षण में ही आत्मप्रसार को बद्ध रखकर संतुष्ट नहीं हो सकती जिसे वर्तमान कहते हैं। वह अतीत के दीर्घ पटल को भेद कर अपनी अन्वीक्षणबुद्धि को ही नहीं, रागात्मिका वृत्ति को भी ले जाती है। हमारे 'भावों 'के लिये भूत-काल का क्षेत्र अत्यंत पवित्र क्षेत्र है। वहाँ वे शरीरयात्रा के स्थूल स्वार्थ से संश्लिष्ट होकर कलुषित नहीं होते-अपने विशुद्ध रूप में दिखाई पड़ते हैं । उक्त क्षेत्र में जिनके 'भावों 'का व्यायाम के लिये संचरण होता रहता है उनके 'भावों 'का वर्तमान विषयों के साथ उचित और उपयुक्त संबंध स्थापित हो जाता है। उनके घृणा, क्रोध आदि भाव भी बहुत कम अवसरों पर ऐसे होंगे कि कोई उन्हें बुरा कह सके ।

मनुष्य अपने रति, क्रोध आदि भावों को या तो सर्वथा मार डाले, अथवा साधना के लिये उन्हें कभी कभी ऐसे क्षेत्र में ले