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रस-मीमांसा

१५० रस-मीमांसा जाल में, छिटकी चाँदनों में, खिलो कुमुदिनों में हमारी आँखें कालिदास, भवभूति आदि की आँखों से जा मिलती हैं। पलाश, इंगुदी, अंकोट वनों में अब भी खड़े हैं, सरोवरों में कमल अब भी खिलते हैं, तालाबों में कुमुदिनी अब भी चाँदनी के साथ हँसती है, वानीर-शाखाएँ अब भी झुक झुककर तीर का नीर चूमती हैं ; पर हमारी अखें उनकी ओर भूलकर भी नहीं जातीं, हमारे हृदय से मानों उनका कोई लगाव ही नहीं रह गया। अग्निमित्र, विक्रमादित्य आदि को अब हम नहीं देख सकते। उनकी आकृति वहन करनेवाला आलोक अब न जाने किस लोक में पहुँचा होगा ; पर ऐसी वस्तुएं अब भी हम देख सकते हैं। जिन्हें उन्होंने भी देखा होगा । सिप्रा के किनारे दूर तक फैले हुए प्राचीन उजयिनी के द्वहों पर सूर्यास्त के समय खड़े हो जाइए इधर उधर उठी हुई पहाड़ियाँ कह रही हैं कि महाकाल के दर्शन को जाते हुए कालिदासजी इमें देर तक देखा करते थे ; उस समय सिप्रावात’ उनके उत्तरीय को फहराता था ।* काली शिलाओं पर से बहती हुई वेत्रवती की स्वच्छ धारा के तट पर विदिशा के खंडहरों में वे ईंट-पत्थर अब भी पड़े हुए हैं। जिन पर अंगराग-लिप्त शरीर और सुगंध-धूम से बसे केश- कलापवाली रमणियों के हाथ पड़े होंगे। बिजली से जगमगाते हुए नए अँगरेजी ढंग के शहरों में, धुआँ उगलती हुई मिलों और ह्वाइट-वे लेडला की दुकान के सामने, हम कालिदास आदि से अपने को बहुत दृर पाते हैं। पर प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र में हमारा उनका भेद-भाव मिट जाता है, हम सामान्य परिस्थिति के साक्षात्कार द्वारा चिरकाल-व्यापी । १ [ मेघदूत, पूर्वमेघ, ३२ ] । २ [ वहीं, २६ ] ।