पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१६६

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शुद्ध 'मनुष्यत्व' का अनुभव करते हैं, किसी विशेष-काल-बद्ध मनुष्यत्व का नहीं ।

यहाँ पर कहा जा सकता है कि विशेष-काल-बद्ध मनुष्यत्व न सही, पर देश-बद्ध मनुष्यत्व तो यह अवश्य है। हाँ, है । इसी देश-बद्ध मनुष्यत्व के अनुभव से सच्ची देश-भक्ति या देश- प्रेम की स्थापना होती है। जो हृदय संसार की जातियों के बीच अपनी जाति की स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं कर सकता वह देश-प्रेम का दावा नहीं कर सकता । इस स्वतंत्र सत्ता से अभिप्राय स्वरूप की स्वतंत्र सत्ता से है ; केवल अन्न-धन संचित करने और अधिकार भोगने की स्वतंत्रता से नहीं। अपने स्वरूप को भूलकर यदि भारतवासियों ने संसार में सुख-समृद्धि प्राप्त की तो क्या ? क्योंकि उन्होंने उदात्त वृत्तियों को उत्तेजित करनेवाली बँधी-बंधाई परंपरा से अपना संबंध तोड़ लिया, नई उभरी हुई इतिहास-शून्य जंगली जातियों में अपना नाम लिखाया। फिलीपाइल द्वीपवासियों से उनकी मर्यादा कुछ अधिक नहीं रह गई।

देश-प्रेम है क्या ? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आलंबन क्या है ? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत-सहित सारी भूमि । प्रेम किस प्रकार का है ? यह साहचर्य- गत प्रेम है। जिनके बीच हम रहते हैं, जिन्हें बराबर आँखों से देखते हैं, जिनकी बातें बराबर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है, साराश यह है कि जिनके सान्निध्य का हमें अभ्यास पड़ जाता हैं, उनके प्रति लोभ या राग हो जाता है। देश-प्रेम यदि वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है। तो यही हो सकता है। यदि यह नहीं हैं तो वह कोरी बकवाद या किसी और भाव के संकेत के लिये गढ़ा हुआ शब्द है। यदि