पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५२
रस-मीमांसा



किसी को अपने देश से सचमुच प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, तला, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि सबसे प्रेम होगा, वह सबको चाह-भरी दृष्टि से देखेगा, वह सबकी सुध करके विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो यह भी आँख-भर नहीं देखते कि आम प्रणय-सौरभ-पूर्ण पंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानो के झोपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने-ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देश- प्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि 'भाइयो ! बिना रूप-परिचय का यह प्रेम कैसा ?' जिसके दुःख-सुख के तुम कभी साथी नहीं हुए उन्हें तुम सुखी देखा चाहते हो, यह कैसे समझे ? उनसे कोसों दूर बैठे बैठे, पड़े पड़े या खड़े खड़े तुम विलायती बोली में 'अर्थशास्त्र' की दुहाई दिया करो ; पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो। प्रेम हिसाब-किताब नहीं है ।हिसाब-किताब करनेवाले भाड़े पर भी मिल सकते हैं, पर प्रेम करनेवाले नहीं । एक अमेरिकन फारसवालों को उनके देश के सारा हिसाब-किताब समझाकर चला गया ।

हिसाब-किताब से देश की दशा का ज्ञान-मात्र हो सकता है । हित-चिंतन और हित-साधन की प्रवृत्ति कोरे ज्ञान से भिन्न है। वह मन के वेग या ‘भाव' पर अवलंबित है, उसका संबंध लोभ या प्रेम से है। जिसके बिना अन्य पक्ष में आवश्यक त्याग का उत्साह हो नहीं सकता। जिसे ब्रज की भूमि से प्रेम होगा वह इस प्रकार कहेगा--.