पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१६८

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नैनन सो 'रसखान' जबैं ब्रज के बन, बाग, तड़ाग निहारौं ।

केतिक वे कल घौत के घाम करील के कुंजन ऊपर वाडौँ ।

रसखान तो किसी की 'लकुटी अरु कामरिया' पर तीनों पुरों का राज-सिंहासन तक त्यागने को तैयार थे ; पर देश-प्रेम की दुहाई देनेवालों में से कितने अपने किसी थके-माँदे भाई के फटे-पुराने कपड़ों पर रीझकर-या कम से कम न खीझकर- बिना मन मैला किए कमरे की फर्श भी मैली होने देंगे ? मोटे आदमियो ! तुम जरा सा दुबले हो जाते-अपने अंदेशे से ही सही-तो न जाने कितनी ठटरियों पर मांस चढ़ जाता !

पशु और बालक भी जिनके साथ अधिक रहते हैं उनसे परच जाते हैं। यह परचना परिचय ही है। परिचय प्रेम का प्रवर्तक है। बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यदि देश- प्रेम के लिये हृदय में जगह करनी है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाइए । बाहर निकलिए तो आँख खोलकर देखिए कि खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच कैसे बह रहे हैं, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है, कछारों में चौपायों के झुंड इधर उधर चरते हैं, चरवाहे तान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच गाँव झाँक रहे हैं ; उनमें घुसिए देखिए तो क्या हो रहा है। जो मिलें उनसे दो-दो बातें कीजिए, उनके साथ किसी पेड़ की छाया के नीचे घड़ी आध घड़ी बैठ जाइए और समझिए कि ये सब हमारे देश के हैं। इस प्रकार जब देश का रूप आपकी आँखों में समा जायगा, आप उसके अंग-प्रत्यंग से परिचित हो जायँगे, तब आपके अंतःकरण में इस इच्छा का सचमुच उदय होगा कि वह हमसे कभी न छूटे, वह सदा हरा-भरा और फला-फुला रहे, उसके धन- धान्य की वृद्धि हो, उसके सब प्राणी सुखी रहें।