पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१७०

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विभाव 1१६ हाय पंचनद ! हा पानीपत ! अजहुँ रहे तुम धरनि विजित १ इवाय चितौर ! निलन तु भारी ; अजहुँ खरो भारतहि मॅझारी ! पानीपत, चित्तौर, कन्नौज आदि का नाम सुनते ही भारत का प्राचीन हिंदू-दृश्य आँखों के सामने फिर जाता है। उनके साथ गंभीर भावों का संबंध लगा हुआ है । ऐसे एक-एक नाम हमारे लिये काव्य के टुकड़े हैं। ये रसात्मक वाक्य नहीं, तो रसात्मक शब्द अवश्य हैं। अब तक जो कुछ कहा गया उससे यह बात स्पष्ट हो गई होगी कि काव्य में ‘आलंबन' ही मुख्य हैं। यदि कवि ने ऐसी वस्तुओं और व्यापारों को अपने शब्द-चित्र द्वारा सामने उपस्थित कर दिया जिनसे श्रोता या पाठक के भाव जाग्रत होते हैं, तो वह् एक प्रकार से अपना काम कर चुका । संसार की प्रत्येक भाषा में इस प्रकार के काव्य वर्तमान हैं जिनमें भावों को प्रदर्शित करनेवाले पात्र, अर्थात् 'आश्रय', की योजना नहीं की गई है- केवल ऐसी वस्तुएँ और व्यापार सामने रख दिए गए हैं जिनसे श्रोता या पाठक ही भाव का अनुभव करते हैं। यदि किसी कवि में किसी दृश्य को पूर्ण चित्रण करके रख दिया, तो क्या वह इसीलिये काव्य न कहलाएगा कि उसके वर्णन के भीतर कोई पात्र उस दृश्य से प्राप्त आनंद या शोक को अपने शब्द और चेष्टा द्वारा प्रगट करनेवाली नहीं हैं ? कुमारसंभव के आरंभ के उतने श्लोकों को जिनमें हिमालय का वर्णन हैं, क्या काव्य से खारिज समझे ? मेघदूत में जो आम्रकूट, विध्य, रेवा आदि के वर्णन हैं उन सबमें क्या यक्ष की विरह-व्यथा ही व्यंग्य है ? १ [मिलाइए ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र' शीर्षक समीक्षा, वही, पृष्ठ २६२] ।