पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५६
रस-मीमांसा

रस-मीमांसा । विभाव, अनुभाव, और व्यभिचारी की गिनती गिनाकर किसी प्रकार 'रस' की शर्त पूरी करना ही जब से कविजन अपना परम पुरुषार्थ मानने लगे तब से यह बात कुछ भूल सी चली कि कवियों का मुख्य कार्य ऐसे विषय को सामने रखना है। जो श्रोता के विविध भावों के आलंबन हो सके। सच पूछिए तो काव्य में अंकित सारे दृश्य श्रोता के भिन्न भिन्न भावों के आलबन- स्वरूप होते हैं। किसी पात्र को रति, हास, शोक, क्रोध आदि प्रकट करता हुआ दिखाने में ही रस-परिपाक मानना और यह समझना कि श्रोता को पूरी रसानुभूति हो गई, बुरा हुआ। औता या पाठक के भी हृदय होता है। वह जो किसी काव्य को पढ़ता या सुनता है तो केवल दूसरों का हुसना, रोना, क्रोध करना आदि देखने के लिये ही नहीं, बल्कि ऐसे विषयों को सामने पाने के लिये जो स्वयं उसे हँसाने, रुलाने, क्रुद्ध करने, आकृष्ट करने, लीन करने का गुण रखते हों । राजा हरिश्चद्र को श्मशान में रानी शव्या से कफन माँगते हुए, राम-जानकी को वनगमन के लिये निकलते हुए पढ़कर ही लोग क्या करुणाई नहीं हो जाते ? उनकी करुणा क्या इस बात की अपेक्षा करती है कि कोई पात्र उन दृश्यों पर शोक या दुःख, शब्दों और चेष्टा द्वारा, प्रकट करे ? तुलसीदासजी के इस सवैये में- कागर-कीर जय भूषन-चीर सुरीर लस्यो तनि नीर ज्यों काई । मातु, पिता, प्रिय लोग सवै सनमानि सुभाय् सनेह-सुगाई । संग सुभामिनि भाइ भलो, दिन द्वै चनु औध हुते पहुनाई। राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई ॥ पाठक को करुण रस में मग्न करने की पूरी सामग्री मौजूद है। परिस्थिति के सहित राम हमारी करुणा के लंबन हैं, चाहे किसी पात्र की करुणा के आलंबन हों या न हो।