पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१७२

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विभाव १५७ इस प्रकार कवि द्वारा अंकित संपूर्ण दृश्य को श्रोता के भावों का आलंबन मान लेने पर पूर्ण रस वहीं मानना पड़ेगा जहाँ ( क ) आश्रय श्रोता के रति भाव का आलंबन होगा और ( ख ) आलंबन श्रोता के भी उन्हीं भावों का आलंबन | होगा आश्रय के जिन भावों का है। जहाँ इस प्रकार का समन्वय न हो वहाँ मैं पूर्ण रस नहीं मानता । यदि आश्रय का चित्रण ऐसा हुआ है कि पाठक या श्रोता के हृदय में उसके प्रति सुहृद भाव स्थापित हो गया है। तो इस संबंध से वह श्रोता उन भावों को अपनाएगा, उनका अनुभव आप भी करेगा जिनका अनुभव करता हुआ आश्रय दिखाया जायगा। इसके उपरांत यदि वह व्यक्ति या वस्तु भी इस रूप में चित्रित है कि उसके प्रति मनुष्य मात्र के अतः श्रोता के हृदय में भी वे भाव बिना उद्भूत हुए न रहेंगे तो फिर क्या कहना है। पूर्ण रस वहीं पर कहा जा सकता है। कौरवों की सभा में दुःशासन पर भीम के क्रोध का यदि वर्णन किया जाय तो उससे रौद्ररस की ऐसी ही अनुभूति हो सकती है क्यों किं अबला द्रौपदी के साथ कुव्यवहार का जो चित्र खींचा जायगा उससे दुःशासन को ऐसा रूप प्राप्त हो जायगा जो पाठक के हृदय में क्रोध का अवश्य संचार करेगा। अतः भीम के क्रोध प्रकट करने पर उसे ऐसा प्रतीत होगा मानो उसी के हृदय का भाव प्रकट किया जा रहा है। पर शकुंतला के प्रति दुर्वासा के क्रोध का वर्णन चाहे कितने ही व्यौरे के साथ किया जाय-- उसमें लाल आँखें, फरकते ओठ, गर्व भरे वाक्य सब कुछ हों-पर उससे पाठक के हृदय में वैसी रसानुभूति नहीं हो सकती। इस कथन का अभिप्राय यह नहीं कि इस प्रकार के भावों का वर्णन ही न किया जाय । प्रसंगप्राप्त सव बातों का