पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१७८

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वासना या संस्कार प्राणी में केवल क्रिया के समय में ही नहीं और काल में भी बराबर निहित रहता है; पर भाव का विधान केवल उद्दीपन और क्रिया के समय होता है, उसके उपरांत नहीं रह जाता। पात्र के भाव की ही प्रतीति श्रोता या पाठक को रस- रूप में होती है। इसी से साहित्यदर्पणकार ने प्रतीतिकाल में ही रस की सत्ता मानी है आगे पीछे नहीं-“न तु दीपेन घट इव पूर्वसिद्धो व्यज्यते '।”

वासना और भाव में दो बातों का और भेद हैं। वासना की प्रेरणा से जो क्रिया होती है उसका एक रूप निर्दिष्ट होता है, वह सदा उसी रूप की होती है, पर भाव के अनुसार जो क्रिया होती है वह बहुरूपिणी होती है - अर्थात् वह कभी किसी प्रकार की होती है, कभी किसी प्रकार की । दूसरी बात यह है कि वासनात्मक प्रवृत्ति का 'जीवन-प्रयत्न' से सीधा लगाव होता है, पर भाव के और और लक्ष्य हुआ करते हैं। पर इससे यह न समझना चाहिए कि 'भाव' का वासनात्मक प्रवृत्ति से कोई लगाव ही नहीं रह जाता । मूल में वासनात्मक प्रवृत्ति बनी रहती हैं और 'भाव' से उस प्रवृत्ति को उत्तेजना मिलती है। 'भाव' की प्रतिष्ठा से बड़ी भारी बात यह होती है कि वासनात्मक प्रवृत्ति में जहाँ पहले केवल विषय के संपर्क - काल में ही क्रिया होती थी वहाँ 'भाव' के संकेत-रूप में स्थिर होने के कारण उक्त काल के पहले और पीछे भी क्रिया होने लगी। गाय अपने बछड़े को सामने पाकर ही प्रसन्न नहीं होती, जंगल में चरकर लौटते समय अपने बछड़े का ध्यान करके भी बड़े उत्साह के साथ बोलती हुई घर लौटती है। मनुष्य अपने विरुद्ध शत्रु की तैयारियों की खबर--------------------------------

१ [ साहित्यदर्पय, तृतीय परिच्छेद, १।]