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रस-मीमांसा

इस-मीमांसा पाकर भी क्रुद्ध होता है और आक्रमण के पीछे उसका स्मरण करके भी । इस प्रकार ‘भाव' की प्रतिष्ठा से प्राणियों के कर्मक्षेत्र का विस्तार बढ़ गया। 'भाव' मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष है। वह क्षुत्पिपासा, कामवेग आदि शरीर-वेगों से भिन्न है। 'भाव' का विश्लेषण करने पर उसके भीतर तीन अंग पाए जाते हैं- | ( १ ) वह अंग जो प्रवृत्ति या संस्कार के रूप में अंतस्संज्ञा में रहता है ( वासना )। । (२) वह अंग जो विषय-बिंब के रूप में चेतना में रहता है। और 'भाव' का प्रकृत स्वरूप है ( भाव, आलंबन आदि की भावना )। (३) वह अंग जो आकृति या आचरण में अभिव्यक्त होता है और बाहर देखा जा सकता है ( अनुभाव और नाना प्रयत्न ) । | इनमें से प्रथम का वह अंश जो पितृ-परंपरा के बीच उत्तरोत्तर, बद्धमूल होता आया है और विषय-संपर्क होते ही उत्तेजित होकर सदा एक ही ढंग की क्रिया (जैसे सुकड़ना, भागना, छिपना ) उत्पन्न करता है वासना' या संस्कार कहलाता है। दूसरे के अंतर्गत आलंबन के प्रति अनुभूति विशेष के बोध के अतिरिक्त अनेक प्रकार की भावनाएँ और विचार भी अ जाते हैं। इस रीति से . किसी एक ‘भाव' के अधिकार में कुछ और . निम्न श्रेणी की अंतःकरण-वृत्तियों और शरीर-व्यापारी का विधान मिलता है। विवेकात्मक बुद्धि-व्यापार भी भावों के शासन के भीतर आ जाते हैं। | सभ्यता की वृद्धि के साथ साथ ज्यों ज्यों मनुष्य के व्यापार बहुरूपी और जटिल होते गए, त्यों त्यों उनके मूल रूप बहुत ।