पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१८०

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कुछ आच्छन्न होते गए । भावों के आदिम और सीधे लक्ष्यों के अतिरिक्त और और लक्ष्यों की स्थापना होती गई; वासनाजन्य मूल व्यापारों के सिवा बुद्धि द्वारा निश्चित व्यापारों को विधान बढ़ता गया। इस प्रकार बहुत से ऐसे व्यापारों से मनुष्य घिरता गया जिनके साथ उसके भावों का सीधा लगाव नहीं। जैसे आदि में भय का लक्ष्य अपने शरीर और अपनी संतति ही की रक्षा तक था; पर पीछे गाय, बैल, अन्न आदि की रक्षा आवश्यक हुई, यहाँ तक कि होते होते धन, मान, अधिकार, प्रभुत्व इत्यादि अनेक बातों की रक्षा की चिंता ने घर किया, और रक्षा के उपाय भी वासनाजन्य प्रवृत्ति से भिन्न प्रकार के होने लगे। इसी प्रकार क्रोध, घृणा, लोभ आदि अन्य भावों के विषय भी अपने मूल रूपों से भिन्न रूप धारण करने लगे। कुछ भावों के विषय तो 'अमूर्त' तक होने लगे, जैसे कीर्ति की लालसा। ऐसे भावों को ही बौद्ध दर्शन में 'अरूपराग' कहते हैं। पर भावों के विषयों और प्रेरित व्यापारों में यह प्रत्यक्ष अनेक- रूपता आने पर भी उनका संबंध भावों के मूल रूपों और उनके मूल विषयों से परोक्ष रूप में बना है और बराबर बना रहेगा। किसी का कुटिल भाई उसे संपत्ति से एकदम वंचित रखने के लिये वकीलों की सलाह से एक नया दस्तावेज तैयार कराता है। इसकी खबर पाकर वह क्रोध से नाच उठता है। प्रत्यक्ष रूप में उसके क्रोध का विषय है वह नया दस्तावेज । पर उस दस्तावेज का संबंध अंततः जाकर इस बात से ठहरता है कि उसे और उसकी संतति को अन्न-वस्त्र न मिलेगा। अतः उसके क्रोध में और उस कुत्ते के क्रोध में जिसके सामने का भोजन कोई दूसरा कुत्ता छीन रहा है सिद्धांततः कोई भेद नहीं है - भेद हैं केवल विषय के थोड़ा रूप बदलकर आने में । इसी रूप बदलने