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रस-मीमांसा

का नाम है सभ्यता । इस रूप बदलने से होता यह है कि उससे उत्तेजित क्रोध आदि को भी अपना रूप कुछ बदलना पड़ता है-वह भी कुछ कपड़े-लत्ते पहनकर समाज में आता है जिससे मारपीट, छीन-खसोट आदि भद्दे समझे जानेवाले व्यापारों का कुछ निवारण होता है।

पर यह प्रच्छन्न रूप उतना मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता। इसी से इस प्रच्छन्नता का उद्घाटन 'काव्य' का एक मुख्य कार्य है। ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ती जायगी त्यों त्यों यह काम बढ़ता जायगा, मनुष्य की मूल रागात्मिका वृत्ति से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों को प्रत्यक्ष करने के लिये उसे बहुत से परदों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ती जायगी त्यों त्यों एक ओर तो काव्य की आवश्यकता बढ़ती जायगी दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायगा । ऊपर जिस क्रुद्ध व्यक्ति का उदाहरण दिया गया है वह यदि क्रोध से छुट्टी पाकर अपने भाई के चित्त में दया का संचार करना चाहेगा तो क्षुब्ध होकर उससे कहेगा-''भाई ! तुम यह सब प्रयत्न इसीलिये न करते हो कि तुम पक्की हवेली में बैठकर हलवा-पूरी खाओ और मैं एक झोपड़ी में बैठा सूखे चने चबाऊँ, तुम्हारे लड़के दुशाले ओढ़कर निकलें और मेरे बच्चे ठंढ से काँपते रहें ।'' यह हुआ प्रकृत रूप का प्रत्यक्षीकरण । इसमें सभ्यता के बहुत से आवरणों को हटाकर वे मूल गोचर रूप सामने रखे गए हैं जिनसे हमारे भावों का सीधा लगाव हैं और जो इस कारण भावों को उत्तेजित करने में समर्थ हैं। कोई बात जब इस रूप में आएगी तभी उसे काव्य का रूप प्राप्त होगा। “तुमने हमें नुकसान पहुँचाने के लिये दस्तावेज बनाया” इस वाक्य में रसात्मकता नहीं। इसी बात को ध्यान में रखकर ध्वनिकार ने कहा है नहि कवेरितिवृत्त-