पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१८२

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मात्रनिर्वाहेणात्मपदलाभः ।१ इसी प्रकार देश की आजकल की । दशा के वर्णन में यदि हम केवल इस प्रकार के वाक्य कहते जायँ कि “हम मूर्ख, बलहीन और आलसी हो गए हैं, हमारा धन विदेश चला जाता है, रुपये का डेढ़ पाव घी बिकता है, स्त्री-शिक्षा का अभाव है'' तो वे छंदोबद्ध होने पर भी काव्य- पद के अधिकारी न होंगे। सारांश यह कि काव्य के लिये अनेक स्थलों पर हमें भावों के विषय के मूल और आदिम रूपों तक जाना होगा जो मूर्त और गोचर होंगे। जब तक भावों से सीधा लगाव रखनेवाले मूर्त और गोचर रूप न मिलेंगे तब तक काव्य का वास्तव रूप खड़ा नहीं हो सकता। भावों के अमूर्त विषयों के आधार भी मूल में मूर्त और गोचर मिलेंगे ; जैसे यशोलिप्सा में कुछ दूर चलकर उस आनंद के उपभोग की प्रवृत्ति छिपी हुई पाई जायगी जो अपनी तारीफ कान में पड़ने से हुआ करता है ।

काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता, बिंवग्रहण अपेक्षित होता है। यह बिंबग्रहण निर्दिष्ट, गोचर और मूर्त विषय का ही हो सकता है। ‘रुपये का डेढ़ पाव घी मिलता है।'इस कथन से कल्पना में यदि कोई बिब या मूर्ति उपस्थित होगी तो वह तराजू लिए हुए बनिये की होगी। जिससे हमारे करुण भाव का सीधा लगाव न होगा। बहुत कम लोगों को घी खाने को मिलता है, अधिकतर लोग रूखी-सुखी खाकर रहते हैं- इस बात तक हम अर्थग्रहण-परंपरा द्वारा इस चक्कर के साथ पहुँचते हैं-एक रुपये का बहुत कम घी मिलता हैं इससे रुपये वाले ही घी खा सकते हैं; पर रुपयेवाले बहुत कम हैं, इससे

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१ [ ध्वन्यालोक, तृतीय उद्योत, पृष्ठ १४८।]