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रस-मीमांसा

अधिक जनता घी नहीं पा सकती, रूखी-सूखी खाकर रहती है। १ यदि इसे व्यंजना कहें तो यह वस्तु-व्यंजना होगी जिससे काव्य को उतना सरोकार नहीं। इस विषय का विस्तृत विवेचन ‘शब्द-शक्ति' के अंतर्गत होगा।

ऊपर जो भाव का विश्लेषण किया गया उससे यह स्पष्ट है। कि 'भाव' का विधान हो जाने पर भी वासनात्मक प्रवृत्ति मूल में बनी रहती है। बात यह है कि आदिम क्षुद्र जंतुओं में पहले सब व्यापार केवल बँधी चली आती हुई सहज प्रवृत्ति के अनुसार होते रहे फिर आगे चलकर उन्नत जंतुओं में प्रवृत्ति के उत्तेजक विषय की 'प्रत्यय' के रूप में धारणा भी होने लगी। इस विषय-प्रत्यय के साथ सुख या दुःख की अनुभूति का बोध भी मिला समझना चाहिए। अतः भाव उस विशेष रूप के चित्त-विकार को कहते हैं जिसके अंतर्गत विषय के स्वरूप की धारणा, सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूति का बोध और प्रवृत्ति के उत्तजन से विशेष कर्मो की प्रेरणा पूर्वापर संबद्ध संघटित हों । संक्षेप में-

प्रत्यय-बोध, अनुभूति और वेगयुक प्रवृत्ति इन तीनों के गूढ़ संश्लेष को नाम 'भाव' हैं।

मन के प्रत्येक वेग को भाव नहीं कह सकते, मन का वही वेग 'भाव' कहला सकता है जिसमें चेतना के भीतर अलंबन आदि प्रत्यय रूप से प्रतिष्ठित होंगे।

मनोविज्ञानियों के अनुसार प्रधान भाव हैं- क्रोध, भय, हर्ष, शोक, घृणा, आश्चर्य और जिज्ञासा । भाव-विधान के भीतर जिस प्रकार प्रवृत्तियाँ हैं उसी प्रकार मनोवेग मात्र भी हैं जिन्हें

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१ [मिलाइए-चिंतामणि,पहला भाग, पृ० १६५ से १६८ तक]