पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१८४

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आलंबन-प्रधान न होने के कारण हम 'भाव' नहीं कह सकते, जैसे चकपकाहट, घबराहट, सोने या टहलने को जी करना इत्यादि । इच्छा भी एक प्रकार का मनोवेग ही है, पर ‘भाव 'तक पहुँचता हुआ स्वतंत्र विधान नहीं । उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं होता, दूसरे भावों के लक्ष्य को लेकर वह चलता है। उसमें निश्चयात्मिका बुद्धि का योग अधिक होता है। उसमें दूरस्थ लक्ष्य या परिणाम की धारणा अधिक स्फुट होती हैं इससे वेग की मात्रा कम होती है। पर इस 'इच्छा' से स्थिति-भेद के अनुसार कुछ संचारी भावों की उत्पत्ति होती है; जैसे, इच्छा की पूर्ति के अच्छे लक्षण दिखाई देने पर आशा, पूर्ति में विलंब होने से व्याकुलता, पूर्ति न होने से नैराश्य, पूर्ति की ओर यथेष्ट अवसर न हो सकने पर विषाद इत्यादि । कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक विधान का एक निर्दिष्ट लक्ष्य हुआ करता है और भाव एक मानसिक-शारीरिक विधान या व्यवस्था है। मनुष्य के प्रधान भावों के लक्ष्य-परिणाम कभी कभी इतने दूरस्थ हुआ करते हैं कि पूर्ति के पहले 'इच्छा' के लिये अवकाश रहा करता है।

भावों के वर्गीकरण का प्रयत्न आधुनिक वैज्ञानिकों ने इधर छोड़ सा दिया है। उन्होंने दो भेद किए हैं मूल और तद्भव । जिस भाव की अनुभूति किसी दूसरे भाव की पूर्वानुभूति की आश्रित न हो वह मूल भाव हैं- जैसे, क्रोध, भय, हर्ष, शोक,आश्चर्य । जो दूसरे भाव की अनुभूति के आश्रय से उत्पन्न हो चह् तद्भव है-जैसे दया, कृतज्ञता पश्चात्ताप इत्यादि । दया के अनुभव के लिये यह आवश्यक है कि दूसरे के शोक या पीड़ा की सी अवस्था का हमं पहले अनुभव कर चुके हों।