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रस-मीमांसा

भाव-विधान की सबसे आधुनिक मीमांसा शैंड ने की है। उन्होंने निरूपित किया है कि अंतःकरण-वृत्तियों का विधान भी एक शासन-व्यवस्था के रूप में हैं जिसके अनुसार विशेष विशेष 'वेग' और 'प्रवृत्तियाँ ' विशेष विशेष 'भावों' के शासन के भीतर रहती हैं और 'भावों'का भी भाव-कोशों के भीतर न्यास होता है। किसी एक अवसर पर उपर्युक्त तीन अवयवों से युक्त जो चित्त-विकार उपस्थित होगा वह तो भाव होगा। पर चित्त में ऐसी स्थिर प्रणाली की प्रतिष्ठा हो जाती है जिसके कारण या जिसके भीतर समय समय पर कई भावों की अभिव्यक्ति हुआ करती है । इस स्थिर प्रणाली का नाम भाव-कोश है । इस निरूपण के अनुसार प्रीति (रति ) और बैर' भाव 'नहीं हैं भाव-कांश मात्र हैं जिनके भीतर स्थिति-भेद से अनेक भाव प्रकट होते रहते हैं । ‘रति' को ही लीजिए। प्रिय का साक्षात्कार होने पर हर्ष, वियोग होने पर विषाद, उस पर कोई विपत्ति आने से उसे खोने की शंका, उसे दुःख पहुँचानेवाले को देख क्रोध इत्यादि अनेक भावों का स्फुरण ‘रति’ की प्रणाली स्थिर हो जाने से हुआ करता है। इन भावों के अतिरिक्त ‘रति' की न तो कोई स्वतंत्र सत्ता हैं और न कोई विशेष स्वरूप । सारांश यह कि रति कोई एक भाव नहीं जिसकी कोई विशेष अनुभूति किसी एक अवसर पर होती हो । प्रीति, बैर, गर्व, अभिमान, तृष्णा, इंद्रिय-लोलुपता इत्यादि भाव-कोश ही माने गए हैं। प्रीति आलंबन-भेद से अनेक रूप धारण करती है - जैसे दांपत्य रति, वात्सल्य रति, मैत्री, स्वदेश-प्रेम, धर्म-प्रेम, सत्य- प्रेम इत्यादि।

भाव-कोश से अभिप्राय भाव-समष्टि नहीं है, बल्कि अंतः करण में संघटित एक प्रणाली मात्र है जिसमें कई भिन्न भिन्न