पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१८६

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भावों का संचार हुआ करता है। जैसे, ‘रति' की प्रणाली के भीतर जो भाव प्रकट होते हुए कहे गए हैं ‘रति’ उनसे संयोजित कोई मिश्र भाव नहीं है। इसी प्रकार बैर आदि को भी समझिए । ‘रति' या 'प्रीति' के विपरीत गति बैर की है। दोनों के लक्ष्य में भेद है। जिन जिन भावों की अभिव्यक्ति रति-प्रणाली के भीतर कही गई उन सबकी अभिव्यक्ति बैर-प्रणाली के भीतर भी होती है, पर विपरीत स्थितियों में । जैसे बैरी के साक्षात्कार से हर्ष के स्थान पर विषाद, उसके दूर होने से विषाद के स्थान पर हर्ष होता है, इसी प्रकार और सब समझिए। पर बैर को हम इन भावों के मिश्रण से संघटित कोई एक भाव नहीं कह सकते। कहने की आवश्यकता नहीं कि चित्त की ये स्थितियाँ जिन्हें भाव-कोश कहते हैं स्थायी होती हैं । अतः इनमें लक्ष्य-साधन के लिये बुद्धि या विवेक से काम लेने का अधिक अवकाश प्राप्त रहता है। जैसे, यदि किसी पर क्रोध होगा तो उस पर आक्रमण करने की प्रबल प्रेरणा होगी, चाहे उस समय के अाक्रमण से उसकी कोई हानि संभव न हो, हमारी ही हानि संभव हो । पर जिससे बैर होगा उसे हानि पहुँचाने का यत्न खूब सोच विचार कर बुद्धि की पूरी सहायता लेकर किया जायगा। यहाँ तक कि किस 'भाव' का प्रकाश लक्ष्य-साधन में सहायक होगा और किसका बाधक इसका विचार करके कोई भाव तो प्रकट किया जायगा और कोई दबाया जायगा । भाव में संकल्प वेगयुक्त होते हैं पर भाव-कोश में धीर और संयत । मनुष्य में शील या आचरण की प्रतिष्ठा भाव-प्रणाली की स्थापना के अनुसार होती है। इस भाव-कोश का विधान भाव-विधान से उच्चतर है, अतः इसका विकास पीछे मानना चाहिए।