पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१८८

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भाव रति ही एक मात्र शुद्ध स्थायी है तब तो उन्होंने कहा कि श्रृंगार ही एक मात्र रस है। अब यहाँ पर यह विचार करना चाहिए कि रति की भाव- रूप में संचारियों से भिन्न अलग सत्ता है अथवा आधुनिक मनोविज्ञानियों के अनुसार वह एक 'प्रतीति-पद्धति' मात्र है। जिसमें भिन्न भिन्न भाव प्रकट होते रहते हैं। हमारे यहाँ के आचार्यों ने और भावों के समान ‘रति’ की भी एक निर्दिष्ट. भाव के रूप किसी एक क्षण में अभिव्यक्ति मानी है- अन्तःकरावृत्तिरूपस्य रत्यादेराशुविनाशित्वेऽपि संस्कारामना चिरकालस्थायित्वाद्यावद्रसप्रतीतिकालमनुसन्मानाचे स्थायित्वम् ।। --( प्रभा-प्रदीप ) भाव की गतिविधि का पता अनुभावों द्वारा बहुत कुछ मिल सकता है। कुछ मनोविज्ञानियों ने तो अनुभावों को 'भाव' का कार्य न मानकर भाव का स्वगत-भेद या अवयव ही माना है। विभाव, अनुभाव और संचारी द्वारा रस-व्यंजना होती है। यह तो प्रसिद्ध ही है। इनमें से संचारी को छोड़ दें तो वह भाव- व्यंजना होगी । अतः अनुभाव द्वारा भाव की प्रवृत्ति का पता चल सकता है। पर कभी कभी कठिनता यह होती है। कि संचारी स्वयं स्फुट न होने पर भी अपना अनुभाव प्रकट करता है और वह अनुभाव प्रधान भाव का ही अनु- भाव मान लिया जाता है, संचारी का नहीं। जैसे, नायक के स्पर्श से नायिका को यदि रोमांच हो तो वह रोमांच हर्ष से होगा, पर हर्ष रति के कारण हुआ इससे वह रोमांच भी उपचार से रति भाव का ही अनुभव कह दिया जाता है। ऐसी दशा में यह देखना चाहिए कि रतिं भाव का अपना कोई अलग