पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१९०

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माघ विवृति ही आजकल के मनोविज्ञानी अधिक समीचीन समझते हैं। उनका कथन हैं कि किसी 'भाव' के अंतर्गत बहुत से मानसिक विकारों का संनिवेश हो सकता है, पर उन सब विकारों के कथन से उस 'भाव' की प्रतीति का पूर्ण स्वरूप नहीं निरूपित होता । जैसे, ईर्षा के अंतर्गत बाधित अभिमान, क्रोध, विषाद, अपनी उन्नति से नैराश्य इत्यादि कई भावों का गूढ़ न्यास पाया जाता है। पर ये सब चित्त-विकार उस भाव को ठीक ठीक प्रतीति नहीं करा सकते जिसे ईर्षा कहते हैं। ‘पानकरसन्याय से ही उसकी प्रतीति होती हैं जो केवल आस्वाद्य है अर्थात् प्रत्यक्षानुभवगम्य है, शब्दगम्य नहीं । उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध हुआ कि जिसे 'रति स्थायी कहते हैं वह तो सचमुच कोई एक ‘भाव नहीं है, पर उसका प्रकृत मूल कोई एक भाव अवश्य है जिसकी स्थायी दशा का नाम है रति या प्रीति । जिस प्रकार एक भाव-विधान के भीतर वासना के रूप में कुछ प्रवृत्तियाँ अंतर्हित रहती हैं उसी प्रकार भाव- प्रणाली या भाव-कोश के भीतर उसकी नीवं देनेवाला मूल भाव भी अंतर्हित रहता है, केवल विषयोत्तेजन पाकर प्रतीति-काल में अभिव्यक्त हुआ करता हैं। सैंड आदि मनोविज्ञानियों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि प्रत्येक ‘भाव' उस स्थायी । [इसे प्रापाक न्याय भी कहते हैं। जिस प्रमर घी, चीनी आदि कई वस्तु को एकत्र करने से वदिया मिठाई बनती है, उसी 'प्रकार अनेक उपादान के योग से सुंदर वस्तु तैयार होने के लांत में -यह उक्ति की जाती है। साहित्यवाले विभाव, अनुभाव आदि द्वारा रस को 'परिपाक सूचित करने के लिये इसका प्रयोग बराबर करते हैं।"-हिंदी शब्द-सागर, पृष्ठ १६•८।]