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रस-मीमांसा

रस-मीमांसा अंतर्हित दशा को प्राप्त हो सकता है जिसे 'भाव-कोश' या स्थायी कहते हैं। क्रोध को ही लीजिए। क्रोध की ही 'स्थायी दशा बैर है जिसमें जैसे और अनेक भावों की अभिव्यक्ति होती है वैसे ही क्रोध की भी हो जाया करती है। अतः क्रोध वास्तव में स्थायी भाव नहीं है, स्थायी भाव है बैर। इसी से प्रीति के मुकाबले में बैर ही का नाम लिया जाता है, जैसे-बैर प्रीति नहिं दुरत दुराए-( तुलसी ) । अब यह निश्चय करना रह गया कि रति या प्रीति नाम की पद्धति का मूल संस्थापक भाव क्या कहा जा सकता है। मैं तो उसे राग कहना अच्छा समझता हैं। लोभ भी कह सकते हैं। किसी व्यक्ति या वस्तु पर लुभाना' बोलचाल में भी बराबर आता है। प्रीति' के अर्थ में लोभ' शब्द योरप की सैक्सन. आदि प्राचीन भाषाओं में गया और अँगरेजी में 'लव' (Love ) के रूप में अब तक बना है। इससे यह प्रकट होता है कि बोलचाल की प्राचीन आर्यभाषा में 'पूर्वराग’ को नोभ शब्द से व्यक्त करते थे। और भावों के समान किसी एक अवसर पर व्यक्तिगत लोभ या राग की प्रवृत्ति का प्रकाश होता है इस बात को हमारी भाषा ही पुकार कर कह रही है। किसी बच्चे पर जब कोई हाथ फेरता हुआ उसे चूमता पुचकारता है तब लोग कहते हैं कि वह उसे प्यार कर रहा है, ठीक उसी प्रकार जैसे जब कोई किसी की ओर लाल आँखें करके कड़े स्वर से बोलता है तब कहा जाता है कि वह क्रोध कर रहा है। | [ मिलाइए, चिंतामणि, पहला भाग, लोभ और प्रीति पृष्ठ ११७ । ]