पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१९२

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भाव १७७ यह एक बँधी हुई बात है कि जिन तथ्यों या भवनाओं के लिये किसी भापा में शब्द हैं उनकी ओर तो उस भाषा के बोलनेवालों का ध्यान जाता हैं, पर जिनके लिये शब्द नहीं हैं उनकी ओर बहुत कम जाता है। बहुत से ऐसे भाव या मानसिक अवस्थाएँ हैं जिनके लिये एक भाषा में शब्द हैं, दूसरी में नहीं । 'ग्लानि’ और ‘संकोच” शब्द लीजिए जिनके ठीक ठीक तात्पर्य को प्रकट करनेवाले शब्द अँगरेजी में नहीं हैं। मनोविज्ञान के भाव-निरूपण में यह बात सबसे अधिक लक्षित होती है । अतः हिंदी में इस विपय पर जो पंथ लिखे जायँ उनमें अपने यहाँ के उन सब शब्दों पर पूर्ण विचार किया जाय जो भावों या मानसिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। इस प्रणाली के अवलंबन से इस बात की बहुत कुछ आशा हैं कि हम भी कुछ नया रंग-ढंग ला सकेंगे। केवल आँख मूंदकर अँगरेजी के शब्दों का अनुवाद । कर जाने से न तो काम हीं चलेगा और न हमारा पुरुषार्थ ही प्रकट होगा। ‘भावुकता का विकास पाश्चात्यों की अपेक्षा पूर्वीय जातियों में अधिक हुआ है। इसके लिये हम दुनिया में बदनाम हैं। अतः मनोविज्ञान के और अंगों में न सही, भाव- निरूपण मैं औरों की अपेक्षा हम शायद कुछ अधिक कर सके। भाषा का भावनाओं के साथ इतना घनिष्ठ संबंध है कि शब्द- संकेत के सहारे पर विचारों के लिये बहुत कुछ मार्ग खुलता है। इसी से गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है गिरा-अर्थ जल बीचि सम कहियत भिन्न, न भिन्न । जैसा कहा जा चुका है-त्येक ‘भाव', स्थायी दशा को प्राप्त हो सकता है पर सबको स्थायी देशा समान रूप से परिस्ट नहीं होती। इससे कुछ के लिये तो निर्दिष्ट शब्द हैं, कुछ के लिये नहीं । नीचे भावों के सामने उनकी स्थायी दशाएँ दी जाती हैं- | १२