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रस-मीमांसा

185 रस-मीमांसा भाव स्थायी दशा ति राग हास आश्चर्य शोक संताप क्रोध बैर भय अाशंका जुगुना विरति इनमें से रति, बैर और विरति तो पूर्णतया परिस्फुट हैं। उनके अस्तित्व में किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता । शोक और भय की स्थायी दशाओं के लिये जो शब्द रखे गए हैं। संभव है वे ठीक न हों, पर उन दशाओं का अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी इष्ट व्यक्ति या वस्तु की हानि, पीड़ा या दुर्दशा से जो शोक उत्पन्न होता है वह मन में घर कर लेता है और 'संताप' के रूप में बराबर बना रहता है। किसी

  • क्रोध और बैर के संबंध का आभास एंजिल ने भी क्रोध की

प्रवृत्ति के वन में इस प्रकार दिया है-- (1) We are angry at the open insult and perhaps moved to enduring hatred by the obnoxious and inscru- pulous enemy, Page 351. | ( 2 ) When anger is deleberate and clevelops hae- Shand. Page 37.