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रस-मीमांसा

१८० रस-मीमांसा चाल या बेढंगी बातों पर हम हँसा करते हैं उसके प्रति प्रायः चित्त की ऐसी स्थायी दशा हो जाती है कि उसका ध्यान या प्रसंग आने पर हमें बराबर हँसी आ जाया करती है। हम उसे बरावर विनोद की दृष्टि से देखा करते हैं। वह जिंदगी भर हमारे लिये एक खिलौना या तमाशा सा रहता है। उसके साथ हमारा एक प्रकार का विनोद-संबंध स्थापित हो जाता है। हास्य में किसी और भाव या चित्त-विकार की गुंजाइश संचारी के रूप में होती है या नहीं इसका विचार आगे किया जायगा । आश्चर्य के संबंध में भी वहीं बात कही जा सकती है जो हास के संबंध में कही गई है। जिस व्यक्ति या वस्तु की लोकोत्तर असाधारणता से हमें आश्चर्य हुआ उसके संबंध में कभी कभी आश्चर्य की प्रणाली स्थापित हो जाती है और हमारे हृदय की ऐसी स्थायी स्थिति हो जाती है कि हम उसे जब कभी देखते हैं या उसका जब कभी ध्यान करते हैं तब लोकोत्तर महत्व के आरोप के साथ। यहाँ तक कि हृदय की ऐसी स्थायी स्थिति में किसी प्रकार की बाधा हमें असह्य होगी और जो कोई उक्त व्यक्ति या वस्तु को साधारण कहेगा उससे हम लड़ खड़े होंगे। महात्माओं के संबंध में जो अलौकिक कथाओं का ढेर लग जाता है वह मनुष्य की इसी स्थायी मानसिक स्थिति के प्रसाद से ।। इस बात की ओर एक बार फिर ध्यान दिला देना मैं आव , श्यक समझता हूँ कि जिस प्रकार रति, बैर और विरति नाम की स्थायी दशाएँ अधिक परिस्फुट होने के कारण अपने मूल भावों से कुछ विशिष्ट प्रतीत होती हैं उस प्रकार बाकी चार स्थायी दशाएँ नहीं, इसी से मनोविज्ञानियों का ध्यान उनकी ओर नहीं गया और इसी से हमारे यहाँ के साहित्यिक भाव-निरूपण में