पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१९६

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भी प्रत्येक 'भाव' की स्थायी दशा उस प्रकार परिस्फुट नहीं की गई है जिस प्रकार राग की स्थायी दशा ‘रति'। पर क्रोध की स्थायी दशा बैर भी इस प्रकार परिस्फुट किया जा सकता हैं। कि प्रायः वे सब सुखात्मक या दुःखात्मक चित्त-विकार जो ‘रति' के संचारी होकर आते हैं उसके भी संचारी होकर आएँ । जैसे, जिसके साथ वैर है उसके निधन या कष्ट पर हर्षे, उसकी विजय या सफलता पर विषाद, उसकी विभूति देख-सुनकर ईर्षा, उसके विरुद्ध अपने प्रयत्न के विफल होने पर लज्जा, उसकी संभावित हानि के संबंध में औत्सुक्य, उसकी की हुई हानि को देखकर उसकी स्मृति, इसी प्रकार धृति, चपलता, चिंता इत्यादि सब संचारी भाव आ सकते हैं। काव्यों में इनके उदाहरण बराबर पाए जायेंगे। यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मूल भाव अपनी स्थायी दशा का संचारी होकर बराबर आया करेगा ठीक उसी प्रकार जैसे 'भाव' के प्रतीति-काल के भीतर उसी की कुछ अंतर्दशाएँ ( जैसे त्रास, अमर्ष ) संचारी के रूप में आती हुई कही गई हैं। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि 'अनुभाव भाव ही के हुआ करते हैं। चाहे प्रधान के हों या संचारी के ) उसकी स्थायी दशा के नहीं- अर्थात् 'अनुभाव' जब प्रकट होंगे तब किसी भाव या उसके संचारी के प्रतीति-काल में । | कोई भाव अपनी भावदशा में ही है या स्थायी दशा को प्राप्त हुआ है इसकी पहचान संचारियों से हो सकती है। कोई भाव या वेगयुक्त चित्त-विकार या तो सुखात्मक होगा या दुःखात्मक । भावदशा में सुखात्मक भाव का संचारी सुखात्मक भाव या चित्त-विकार ही होगा और दुःखात्मक का दुःखात्मक। बात यह है कि सुखात्मक भाव के अनुभव-काल में दुःखात्मक चित्त-विकार के आ जाने से और दुःखात्मक के अनुभव-काल में सुखात्मक