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रस-मीमांसा

(म-मीमांसा चित्त-विकार के आ जाने से भाव बाधित होकर तिरोहित हो जायगा । पर स्थायी दशा प्राप्त होने पर यह बात नहीं रहती ।। स्थायी दशा को विरुद्ध या अविरुद्ध कोई भाव संचारी रूप में आकर तिरोहित नहीं कर सकता। स्थायी का यह लक्षण ग्रंथों . में स्वीकार किया गया है पर ‘रति’ को छोड़ ( जो 'राग' की स्थायी दशा हैं ) क्रोध आदि भावों में यह लक्षण नहीं घटता ।। सुखात्मक भावों से निष्पन्न हास्य, वीर और अद्भुत रसों के संचारियों में कोई दुःखात्मक भाव या चित्त-विकार न मिलेगा; इसी प्रकार दुःखात्मक भावों से निष्पन्न करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स रसों के संचारियों में हर्ष आदि सुखात्मक भाव या चित्त-विकार न मिलेंगे। ऊपर के स्थायित्व-विवेचन में उत्साह छोड़ दिया गया है। उत्साह की स्थायी दशा की अनुसंधान करने में हमें एक दूसरी ही कोटि का स्थायित्व मिलता है जिससे मनुष्य के स्वभाव का निर्माण होता है। अब तक जिस स्थायित्व का विचार किया गया वह एक ही आलंबन के प्रति था। पर किसी भाव के प्रकृतिस्थ हो जाने पर वह एक ही आतंबन से बद्ध नहीं रहता, समय समय पर भिन्न भिन्न आलंबन ग्रहण करता रहता है। यदि राग या लोभ प्रकृतिस्थ हो गया है तो वह किसी एक ही व्यक्ति या वस्तु के प्रति रति या प्रीति के रूप में परिमित न रहेगा, अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं की और लपका करेगा और अपने आश्रय को प्रेमी, रसिक अथवा लोभी, लंपट आदि लोक [ अविरुद्धा विरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षमाः । आस्वादाङ्करकन्दोऽसौ भावः स्थायीति संमतः ।। -साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, १७४ । ]