पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१९८

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भाव से कहलाएगा। इसी प्रकार यदि क्रोध प्रकृतिस्थ हो गया है तो एक ही व्यक्ति के प्रति बैर' के रूप में न टिकेगा, बल्कि अनेक व्यक्तियों के प्रति समय समय पर प्रकट हुआ करेगा जिससे मनुष्य क्रोधी या चिड़चिड़ा कइलाएगा। जिस किसी की प्रकृति में शोक या विषाद ओतप्रोत हो जायगा उसमें यदि केवल अपने ही दुःख या हानि के अनुभव की सामर्थ्य होगी तो वह अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं से खिन्नता प्राप्त किया करेगा और रोना, मनहूस या मुहमी कहलाएगा और यदि उसमें दूसरों की हानि या दुःख की अनुभूति की वृत्ति प्रबल होगी तो दयावान् कहलाएगा । इसी प्रकार किसी एक ही व्यक्ति या वस्तु से नहीं अनेक अवसरों पर अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं से डरनेवाले को भीरु या डरपोक, बात बात पर हरएक आदमी को देखकर हँसनेवाले को हँसोड़ या ठट्टेबाज, हरएक वस्तु से नाक सुकोड़नेवाले को छिनछिना या तुनकमिजाज तथा जितनी वस्तुएँ सामने आएँ उनमें से बहुतों को देख चकपकाने या अश्चर्य करनेवाले को चकपका या को कहते हैं। भाव के इस प्रकार प्रकृतिस्थ हो जाने की अवस्था को इम शील दशा कहेंगे । उत्साह का अर्थ है साहस की उमंग जो किसी कठिन कर्म की ओर प्रवृत्त करती है। उत्साह में आतंबन और लक्ष्य स्थिर और परिस्फुट नहीं होते इसी से मनोविज्ञानियों ने प्रधान भाव की गिनती में उसे नहीं रखा है। यद्यपि ग्रंथों में प्रतिमल्ल, दानपात्र और दयापात्र को उत्साह के आलंबन कहा है पर भाव के अनुभूति-काल में इन व्यक्तियों की ओर वैसा ध्यान नहीं रहता जैसा और भावों के प्रतीति-काल में रहता है। किसी शत्रु