पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२००

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भाव मात्र है। फिर आचार्यों ने उसे प्रधान भावों की गिनती में रखा क्यों ? संचारियों में क्यों न डाल दिया ? रस में उसकी प्रयो- जकता के विचार से । आश्रय या पात्र में उसकी व्यंजना द्वारा श्रोता या दर्शक को ऐसा विविक्त रसानुभव होता है जो और रसों के समकक्ष हैं । इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि साहित्यिकों का सारा भाव-निरूपण रस की दृष्टिं से है। 'दयावीर’ को लीजिए जो कि एक संकर भाव है। उसमें प्रधान भाव तो रहता है करुणा या दया का, पर उसके साथ ‘उत्साह का भी योग हो जाता है । पहले हमें किसी व्यक्ति के दुःख पर द्या उत्पन्न होकर ऐसे कर्मों की प्रेरणा उत्पन्न करती है जिनसे उसका दुःख दूर हो सकता है। यदि कर्म साधारणतया साध्य हुआ तब तो दया के अतिरिक्त और भाव या मनोवेग की सहायता अपेक्षित नहीं होती है पर यदि कर्म दुःसाध्य, कष्टकर या असाधारण हुआ तो साथ ही एक और दूसरे मनोवेग अर्थात् साहस की उमंग ( उत्साह ) का योगदान आवश्यक होता है । यहाँ पर शंका उठती है कि जब कि प्रधान प्रवर्तक दया या करुणा है तब आचार्यों ने 'दयावीर' को उत्साह या वीर रस के अंतर्गत क्यों रखा ? द्यावीर के लिये दया को प्रधान भावों में क्यों नहीं गिन लिया ? यहाँ पर भी कहना पड़ता है कि रस की दृष्टि से । आश्रय द्वारा व्यक्त किया हुआ भाव साधारणीकरण के प्रभाव से श्रोता या दर्शक में भी उस भाव की रस-रूप में अनुभूति उत्पन्न करता है। आश्रय के शोक या दुःख का अनुभव श्रोता या दर्शक के हृदय में परदुःखजन्य दुःख अर्थात् दया या करुणा के रूप में होगा। इसी प्रकार और ‘भावों के अनुभव भी साधारण्य से ही अर्थात् सहानुभूति के रुप में ही श्रोता या दर्शक