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भाव


मिलेगा। श्रद्धा-भक्ति किसी में एक व्यक्ति के प्रति होती है तब भी लोग कहते हैं कि ‘उसमें अमुक के प्रति श्रद्धा है’ और बड़ों के प्रति सामान्यतः होती है तब भी कह दिया जाता है कि ‘उसमें बड़ों के प्रति श्रद्धा है’―यह नहीं कहा जाता कि ‘बड़ों से प्रति श्रद्धाशीलता है’। पर ‘वह श्रद्धावान् है’ इतना कहने से यहीं समझा जाता है कि वह श्रेष्ठ व्यक्तियों (आचार्य आदि) या वस्तुओं (जैसे, धर्म) के प्रति साधारणतः श्रद्धा रखनेवाला है। शीलदशाओं का समूह बहुत बड़ा है। आलंबन-प्रधान अर्थात् प्रत्यय-बोधाश्रित मुख्य भावों से ही शीलदशा की प्रतिष्ठा नहीं होती, ‘भावदशा’ तक न पहुँचनेवाले मन के वेगों और प्रवृत्तियों के चिराभ्यास से भी भिन्न भिन्न शीलदशाएँ मनुष्य की प्रकृति में प्रतिष्ठित होती हैं―जैसे, आलस्य से आलसीपन, लज्जा से लज्जाशीलता, अवहित्था से दुराव का स्वभाव, असूया से ईर्षालु प्रकृति इत्यादि। इसी प्रकार संकोचशीलता, स्पर्द्धशीलता, जो वस्तु देखी उसे अपनाने की प्रकृति इत्यादि अनेक प्रकार की शीलदशाओं का विधान भिन्न भिन्न वेगों और प्रवृत्तियों के पकड़ने से होता है। मनोविज्ञानियों ने ‘स्थायी दशा’ और ‘शीलशा’ के भेद की ओर ध्यान न देकर दोनों प्रकार की मानसिक दशाओं को एक ही में गिना दिया है। उन्होंने रति, बैर, धन-तृष्णा, इंद्रिय-परायणता, अभिमान इत्यादि सबको स्थायी भावों की कोटि में डाल दिया है। पर मैंने जिस आधार पर भेद करना आवश्यक समझा है उसका विवरण ऊपर दिया जा चुका है।

अब काव्य में इन तीनों दशाओं का उपयोग किस प्रकार होता है इस पर थोड़ा विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है।