पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८८
रस-मीमांसा

१८८ रस-मीमांसा लक्षण-ग्रंथों में रस-व्यंजना की जो परिपाटी बताई गई है उसका पालन तो अपनी अंतर्दशाओं ( संचारियों ) के सहित भावदशा से ही हो जाता है। 'राग' ही 'रति स्थायी के रूप में अधिकतर देखा जाता है और भाव प्रायः नहीं। पर यह दिखाया जा चुका है कि बैर । क्रोध की स्थायी दशा) इत्यादि का रसपूर्ण वर्णन भी इस प्रकार हो सकता है कि उसमें वे सब संचारी प्रायः आ जायें जो रति में आते हैं। इस प्रकार और भावों की ‘स्थायी दशाओं को भी ले लेने से रस-क्षेत्र का । जाता है। जैसे, यदि कोई शत्रु पर कुपित होकर तत्काल लाल ऑखें किए उसकी ओर दौड़ पड़े तो यह दौड़ना या झपटना भाव- दशा के ‘अनुभाव' के अंतर्गत होगा ; पर यदि वह बैठकर शत्रु के नाश के उपाय स्थिर करता है और फिर उन उपायों के साधन में धीरता के साथ प्रवृत्त होता है तो उसका यह व्यापार क्रोध की स्थायी दशा ‘बैर' के अंतर्भूत होगा। राम का समुद्र तट पर बैठकर धीरतापूर्वक सेतु बँधवाना 'अनुभव' के अंतर्गत नहीं कहा जा सकता ( क्योंकि अनुभाव किसी भावदशा में ही होता है ) पर धैर्य अवश्य व्यंजित करता है, जो क्रोध की भाव- दशा से नहीं प्रकट हो सकता । यह सूचित किया जा चुका है। कि स्थायी दशा में भाव का अधिकार बुद्धि पर भी हो जाता है अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति भी 'भाव' के आदेश पर परि- चालित होने लगती है। यहाँ पर जिज्ञासा हो सकती है कि । क्या बुद्धि की क्रिया का सारा ब्योरा भी भाव-विधान के अंतर्गत आ जाता है। नहीं ; भाव-विधान के अंतर्गत केवल ‘बुद्धि का क्रिया करना’ यह बात होती हैं, स्वयं क्रिया नहीं। केवल बुद्धि की विचक्षणतासूचक, जो बातें होती हैं वे 'रस' में नहीं घुलर्ती । घटनाक्रम-प्रधान आख्यानों ( उपन्यास, कहानी आदि ) मैं तो वे