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रस-मीमांसा

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११० रस-मीमांसा सुनि सीतापति सील सुभाङ । मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ ।” इतनी चेतावनी देकर गोस्वामीजी राम के शील-स्वभाव को इस प्रकार विशद रूप में अंकित करते हैं सिसुपन तें पितु मातु बंधु गुरु सेवक सचिव सखाउ । कहत राम सिंधु-बदन रिसोई सपनेहु लख्यो न कोउ ।। खेलत संग अनुन बालक नित जोगवत अनट अपाउ । जीति हारि चुचुकारि दुलारत देत दिवाबत दाउ । सिला सोप-संताप-विगत भइ परसत पावन पाउ । दई सुगति सो न ईरि इरष हिय चरन छुए को पछिताउ । भव-धनु नि निदरि भूपति, भृगुनाथ खाइ गए ताउ ।। छमि अपराध कुमार पायें-परि, इतौ न अनत अमाउ ॥ को ज, बन दियो नारिस, गरि गलानि गयो राउ । ता कुमाढ़ को मन जोगवत व निम्न तनु मरम कुमाउ । कपि-सेवा-बस भए कनौ, कह्यो ‘पवन-सुत श्राउ । देने को न कछु, ऋनियाँ , घनिक तु पत्र लिखाउ' ।। अपनाए सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ । भरत-सभा सनमानि सुरात होत न हृदय अघाउ । निजकरुन-करतुति भगत पर चपत चलत चरचा । सकृत प्रनाम प्रनत-बस बरनत सुनत, कद्दत 'फिरि गाउ' ॥ •[ विनयपत्रिका-१••]