पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१९४
रस-मीमांसा

________________

'म मी माँ | सुखात्मक वर्ग में जो चार भाव रखे गए हैं उनमें 'राग' और हास' के सुखात्मक होने में कोई संदेह हो ही नहीं सकता । ‘उत्साह’ भी सुखात्मक भाव है इसकी सूचना हर्ष, धैर्य आदि संचारी भाव भी दे रहे हैं और शव्दार्थ के संबंध में लोक-प्रवृत्ति भी। साधारण बोलचाल में उत्साह या 'उछाह से आनंद या आनंद की उमंग का ही अर्थ लिया जाता है। आश्चर्य के संबंध में दो प्रश्न उठाए जा । ( १ ) क्या दुःखात्मक-अनुभव-पूर्वक इसकी प्रतीति नहीं होती ? (२) इसे सुख और दुःख दोनों से उदासीन क्यों न कहें ? पहले प्रश्न के संबंध में थह कहना है कि दुःखदायी वस्तुए भी अद्भुत हो सकती हैं पर यहाँ पर आलंबन के किसी स्वरूप विशेष की सत्ता मात्र से प्रयोजन नहीं है. यहाँ तो यह देखना हैं कि आलंबन के किसी स्वरूप के प्रति अश्य या श्रोता के हृदय में परिस्थिति या अवसर के विचार से किसी भाव के स्फुट रूप में उद्भूत होने की संभावना रहेगी या नहीं। किसी प्रकार के दुःख के क्षोभकारी अनुभव की दशा में चित्त को क्या इतना अवकाश मिल सकता है कि वह किसी वस्तु या व्यापार की लौकिकता अलौकिकता की ओर जमे ? मैं समझता हूँ शायद ही कभी। साहित्य के आचार्यों ने तो हुर्ष को अद्भुत का संचारी कहकर आश्चर्य का सुखात्मक भाव होना स्पष्ट ही कर दिया है। आजकल के मनोविज्ञानियों ने भी उनके अनुकूल मत प्रकट किया है । * १ [ वितर्का वेगसंभ्रान्तिहर्षाद्या व्यभिचारिणः । | -साहित्यदर्पण, ३१४५ ।] * The cases in which there is something repugnent in an object which is at the same time felt as wonder