पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२१०

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भावों का वर्गीकरण १६३ दूसरी बात आश्चर्य को उदासीन मानने की है। आश्चर्य में अद्भुत वस्तु पर ध्यान का जमना ही चित्त का लगना सूचित करता है, उदासीनता नहीं । थोड़ी देर के लिये आश्चर्य की कोई उदासीन अवस्था मान भी लें तो उस अवस्था का ग्रहण काव्य में नहीं हो सकता । काब्य रसात्मक होता है, 'रस' भावमय होता है और भावों के साथ अनुभूति लगी रहती है। जो या तो सुखात्मक होगी अथवा दुःखात्मक । आश्चर्य कई रंग बदलता है। यदि उसमें जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है तो आश्चर्य की चमत्कृति, जिसमें बुद्धि की क्रिया को एकदम विराम रहता है, बहुत थोड़ी देर ठहर पाती है। बात यह है कि जिज्ञासा के अग्रसर हो जाने के कारण बुद्धि तुरंत कारण के अन्वेषण में तत्पर हो जाती है और आश्चर्य के मूल स्वरूप का अंत हो जाता है। | ‘हास' यों तो केवल मन का एक वेग मात्र है, पर भावों में जिस हास को स्थान दिया गया है वह ऐसा है जिसके आश्रयगत होने पर श्रोता या दर्शक को भी रस-रूप में हास की अनुः भूति होती हैं। वह आलंबन-प्रधान होता है। यों ही प्रसन्नता के कारण ( जैसे शत्र के विरुद्ध अपनी सफलता पर । जो हँसी आती है वह ‘भाव की कोटि में नहीं- वह मन की उमंग या शरीर का व्यापार मात्र है, उसके प्रदर्शन से श्रोता या दर्शक के हृदय में हास की अनुभूति नहीं हो सकती । । ful and where in the repugnancy is only in part counteracted, are exceptional. The wonderful is ordinarily an object of delight. Hence it is that we find the terms 'admiration' and 'wonder often combined. --Shand ( Foundations of Character. )