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रस-मीमांसा

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२०२ रस-मीमांसा जाय तो रति भाव व्यंजना द्वारा समझ लिया जायगा। ऐसी दशा में अविरुद्ध संचारी यदि भाव का अवयव होता है-जैसा कि उक्त उदाहरण में है- तो भाव का स्वरूप श्रोता को तुरंत फुट हो जाता है। जहाँ वह अवयव नहीं होता वहाँ व्यंजक वाक्य को सावधानी से रखना भी पड़ता है और समझना भी । जैसे, यदि कहा जाय कि अमुक को देखते ही वह वस्त्रादि न सँभालकर कभी नीचे कभी ऊपर जाने लगी तो सुननेवाले को यह् संदेह रह जाता है कि ऐसा आबेग रति भाव के कारण हुआ या भय के । अतः प्रिय या नायक शव्द रखने से रति भाव के ग्रहण में और ‘शत्रु' शब्द अथवा 'विकराल' आदि विशेषण रखने से भय के ग्रहण में सहायता पहुँचेगी। | अब देखना चाहिए कि आचार्यों ने यों ही मनमाने ढंग पर कुछ भावों को प्रधान भावों में और कुछ को संचारियों में रख दिया हैं अथवा किसी सिद्धांत पर ऐसा किया है। केवल यह जानकर ही आधुनिक जिज्ञासा तुष्ट नहीं हो सकती कि ग्रंथों में ये भाव प्रधान कहे गए हैं और ये संचारी। क्यों पूछनेवालों की उपेक्षा अब नहीं की जा सकती । अतः जिस सिद्धांत पर यह भेद-विधान स्थित है। उसका पता लगाना चाहिए। उस सिद्धांत का कुछ आभास यद्यपि मैं कुछ ही पहले अन्य प्रसंग में दे आया हूँ पर यहाँ उसे फिर से स्पष्ट कर देना आवश्यक है। इस बात को बराबर ध्यान में रखने का अनुरोध किया जा चुका है कि साहित्य के आचार्यों का सारा भाव-निरूपण रस की दृष्टि से-अर्थात् किसी भाव की व्यंजना से श्रोता या दर्शक में भी उसी भाव को सी प्रतीति के विचार से किया गया है। अतः जो भाव ऐसे हैं जिन्हें किसी पात्र को प्रकट करते देख या