पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२१८

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नाव का वर्गीकरण सुनकर दर्शक या श्रोता भी उन्हीं भावों का सा अनुभव कर सकते हैं वे तो प्रधान भावों में रखे गए हैं, शेष भाव और मन के वेग संचारियों में डाले गए हैं। जैसे, किसी आलंबन के प्रति आश्रय को शोक या क्रोध प्रकट करते देख उस आलंबन के मर्मस्पर्शी स्वरूप और 'भाव' की विशद व्यंजना के बल से श्रोता या दर्शक को उक्त दोनों भावों का रस-रूप में परिणत अनुभव होता है, अतः वे प्रधान भावों की श्रेणी में रखे गएं । पर आश्रय को किसी बात की शंका, किसी से ईष्र्या, किसी पर गर्व, किसी से लज्जा प्रकट करते देख श्रोता या दशक को भी शंका, ईष्य, गर्व, लज्जा आदि का अनुभव न होगा, दूसरे भावों का हो तो हो । इसी से ये भाव प्रधान न माने जाकर संचारी माने गए हैं। पर इससे यह मतलब नहीं कि ये भाव सदा प्रधान भावों के द्वारा प्रवर्तित होकर अनुचर के रूप में ही आया करते हैं, स्वतंत्र रूप में आते ही नहीं। चे स्वतंत्र रूप में अपने निज के अनुभवों के सहित भी आते हैं पर पूर्ण रस की अवस्था को नहीं प्राप्त होतेअर्थात् ऐसी दशा को नहीं पहुँचते जिसमें श्रोता या दर्शक भी आश्रय में उनकी विशद् व्यंजना देख उनका अनुभव हृदय में करने लगे और समान अनुभाव प्रकट करने लगे। सारांश यह कि प्रधान ( प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी ) भाव बही कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचेरसावस्थः परं भावः स्थायितां प्रतिपद्यते । [-साहित्यदपण, तृतीय परिच्छेद । ] . नियत प्रधान भावों के स्वरूप-निर्धारण के लिये ‘रसावस्था का वही अर्थ लेना चाहिए जो ऊपर कहा गया है। “विभाव, अनुभाव और संचारो तीनों के मेल से जिसकी व्यंजना हो