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रस-मीमांसा

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1स-मीमा सके। यह प्रचलित अर्थ लेने से कुछ काम तो निकल जाता है। पर प्रधानता के स्वरूप का ठीक ठीक निर्देश नहीं होता। इस अर्थ को ग्रहण करने से यही पहचान मिलती हैं कि जो सचारी होंगे उनकी व्यंजना में तीनों का मेल नहीं होगा, कोई उपादान खंडित रहेगा। यह तो प्रत्यक्ष ही है कि संचारियों में जो भाव गिनाए गए हैं उनकी व्यंजना अनुभाव द्वारा भी प्रायः होती है। अतः कमी पी तो संचारी क–अर्थात् जो नियत संचारी हैं, इस लक्षण के अनुसार, स्वतंत्र या प्रधान रूप से आने पर भी संचारी से रहित होंगे। इस संबंध में दो बातें कहनी हैं। ( १ ) जो भाव संचारियों में गिनाए गए हैं उनके प्रधान या स्वतंत्र रूप से आने पर उनके अंतर्गत भी संचारी भाव आ सकते हैं। लज्जा को लीजिए। इसमें जिस व्यक्ति से लज्जा होगी वह आलंबन और उसका ताकना झाँकना उद्दीपन, सिर कानां आदि अनुभाव और अवहित्था संचारी कही जा सकती है। इसी प्रकार असूया या ईष्य के अंतर्गत अमर्ष संचारी होकर आ सकता है। (२) इससे सिद्ध हुआ कि किसी भाव की *विभाव, अनुभाव और संचारी के मेल से व्यंजना” ही श्रोता या दर्शक में उस भाव का अनुभव नहीं करा सकती अर्थात् पूर्ण रस की निष्पत्ति नहीं कर सकती । तीनों संयोजकों द्वारा लज्जा की व्यंजना देखने से श्रोता या दर्शक के मन के सामने लज्जा का पूर्ण स्वरूप भर खड़ा होगा, हृदय में लज्जा का अनुभव न उत्पन्न होगा। ५ [ विभावानुभावव्यभिचारि संयोगदसनिष्पत्ति:, -नाट्यशास्त्र, षष्टाध्याय: ।]