पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।



३६१
भावों का वर्गीकरण
अन्य अंतःकरण-वृत्तियाँ

अब स्मृति, चिंता, वितर्क, मति आदि अंतःकरण की अन्य वृत्तियों को लीजिए जो रागात्मिका नहीं हैं। किसी बात को स्मरण करना, चिंता करना, तर्क-वितर्क करना ये सब मन के वेग नहीं हैं; धारणा, बुद्धि आदि के व्यापार हैं जो वेदपाठियों, तार्किक, मीमांसकों आदि में पूर्ण रूप में देखे जाते हैं। फिर इनका ग्रहण काव्य में कैसे हुआ ? काव्य में इनका ग्रहण वहीं तक समझना चाहिए जहाँ तक वे प्रत्यक्ष रूप में भावों के द्वारा प्रेरित प्रतीत होते हों । 'प्रत्यक्ष रूप में कहने का अभिप्राय यह है कि भाव प्रधान रूप से परिस्फुट हो जिससे श्रोता या दर्शक का ध्यान 'भाव' पर रहे, इन अंतःकरण व्यापारों और इनके व्योरों पर नहीं। परोक्ष रूप में तो मनुष्य के सारे व्यापार और वृत्तियाँ भाव-व्यवस्था के अनुसार परिचालित होती हैं। मतलब यह कि ‘भाब' की प्रधानता स्पष्ट रहनी चाहिए। उसे इस प्रकार व्यंजित होना चाहिए कि उक्त अंतःकरण वृत्तियों की सत्ता उसी की सत्ता के भीतर दिखाई पड़े। शील के आधार-निरूपण में शैड ने भी संकल्पात्मिका और निश्चयात्मिक वृत्ति ( बुद्धि) को ‘भावों के शासन के भीतर लाकर विचार किया है। उन्होंने इस बात को मानते हुए भी कि मनुष्य की रागात्मक सत्ता से परे समष्टि-रूप एक आत्मसत्ता भी है जो भिन्न भिन्न भावों की प्रवृत्तियों को दबाकर कभी कभी कर्म-विवेक करती है, शील के वैज्ञानिक आधार-निरूपण में उसका विचार निष्प्रयोजन ठहराया है। प्रायः सब देशों के तत्त्वज्ञ महात्मा 'राग' और 'विवेक' को परस्पर विरोधी कहकर रागों के दमन का उपदेश करते आए हैं। पर यदि ऐसा विरोध