पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२२८

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भावों का वर्गीकरण उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मति, शंका, वितर्क आदि यदि किसी भाव के कारण उत्पन्न हों और वह भाव स्पष्ट रूप से व्यजित होता हों तभी उनका ग्रहण काव्य में हो सकता है। यों ही प्रसंग आने पर कोई बात सोचने लगना या किसी बात का स्मरण करना काव्य-भावांतर्गत न होगा। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैंस्मृति-(क) जहाँ जहाँ ठाढ़े लख्यो स्याम सुभग-सिरमौर । उनहूँ बिन छिन गहि रहत यानि आज वह ठौर ।। [बिहारी-रत्नाकर, १८२ । (ख) मन में नात अजौं घई वा जमुना के तौर ।। | [ बिहारी-रत्नाकर, ६८१ ।] मति-असशयं क्षत्र-परिग्रहचना यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः । [अभिज्ञानशाकुंतल, प्रथम अंक, २१ ।] चिंता-जब तें इत ते घनश्याम सुजान अचानक ही बल संग सिधारे । कर मैं भुख-चंद घरे सजनी नित सोचति है तू कहा मन मारे । बितर्क-(क) जौ । कद्द रहिए तो प्रभुता प्रगट होति, चलन कहीँ त हित-हानि नाहिं सहनै। कविधिया,१०-२०]] (ख) किं रूद्धः प्रियया कदाचिया सख्या ममो जितः ।। किंवा कारण गौरवं किमपि यन्नाद्यागती वल्लभः ।। [ साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, विरद्दोत्कंठिता ।] १ [साहित्यदर्पण में उदाहृत प्राकृत की निम्नलिखित गाथा से मिलाइए कमले विअसिए संजोएन्ती विरोहिणं ससिबिम्बम् । करअलपल्जयमुदी किं चिन्तसि सुनुहि अन्तराष्ट्रिअहिश्रा । कमलेन विकसितेन संयोजयन्ती विरोधिनं शशिनम् । करतलपर्यस्त मुखीं किं चिन्तयसि सुमुखि, अन्तराइितहृदया। --तृतीय परिच्छेद, श्लोक १७१ ।]