पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२१६
रस-मीमांसा

________________

रस-मीमांसा भी हो सकते हैं। जिस प्रकार स्मृति है उसी प्रकार ‘विस्मृति भी रखी जा सकती है। मानसिक अवस्थाएँ दैन्य, मद, जड़ता, चपलता इत्यादि मानसिक अवस्थाएँ दो प्रकार की होती हैंप्रकृति-गत और आगंतुक । आगंतुक रूप में ही वे संचारी होती हैं क्योंकि उनका किसी 'भाव' के कारण प्रकट होना स्पष्ट रहता है। किसी मानसिक अवस्था की एक स्थिर प्रणाली का प्रकृतिस्थ हो जाना मुल में चाहे किसी भाव के कारण ही हो पर अभिव्यक्ति-काल में उक्त भाव के साथ उस अवस्था का प्रत्यक्ष संबंध न दिखाई देने से वह स्वतंत्र ही कही जायगी । इस प्रकार की प्रकृतिगत मानसिक अवस्थाएँ रस की बँधी लीक पीटनेवाले फुटकरिये कवियों के काम की चाहे न हों पर चरित्र-चित्रण में बड़े मतलब की हैं। किसी सीधे सादे सज्जन के दैन्य भाव, किसी दुष्ट की स्वाभाविक उप्रता, बालकों की चपलता, ज्ञानियों की धीरता इत्यादि देखने सुनने से श्रोता या दर्शक का मनोरंजन ही नहीं होता बल्कि सञ्जन, दुष्ट, चालक, ज्ञानी, आलसी इत्यादि के ठीक ठीक स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण होता है जिससे इन भिन्न भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के प्रति उपयुक्त भावों की प्रतिष्ठा होती है। जो ज्ञानियों और सज्जनों पर श्रद्धा, दुष्टों से घृणा, बालकों से स्नेह और आलसियों से विरक्ति या उपहास का भाव रखने में अभ्यस्त हो गया उसके चरित्र के सुधरने में कसर ही क्या रह गई ? मतलब यह कि इन मानसिक अवस्थाओं को ‘शीलदशा में देखकर प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को उत्तेजना मिलती है।