पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२३२

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भावों का वर्गीकरण भावों के प्रत्यक्ष संबंध से संचारियों के रूप में इन मानसिक अवस्थाओं की जहाँ अभिव्यक्ति होती है वहाँ उनमें प्रधान भावों के प्रभाव से बहुत कुछ वेग आ जाता है। जैसे, भय के कारण जो दैन्य होगा वह इतना प्रवल होगा कि मानापमान का भाव विलकुल दुवा रहेगा और दीनता दिखलानेवाला व्यक्ति दस आदमियों के सामने भय के आलंबन से हाथ जोड़ेगा, गिड़गिड़ायगा और अपने को तुच्छातितुच्छ बनाएगा। ऐसे स्थल पर ध्यान प्रधानतः भय की ओर ही रहेगा, दैन्य की ओर नहीं। लोग यही कहेंगे कि यह डर के मारे गिड़गिड़ा रहा है। इसी प्रकार भक्ति ( जो वड़ों के प्रति पूज्यबुद्धि-मिश्रित रति ही है ) के उद्रेक से अर्थात् पूज्य के अलौकिक महत्व के ध्यान में लीन होने से अपनी लघुता की जो सुखद अनुभूति होती है। उसमें भी बहुत कुछ जोर रहता है। भक्तवर गोस्वामी तुलसीदासजी ने दोनों प्रकार के दैन्य' का परिचय दिया है-प्रकृतिगत का भी और भावाश्रित का भी । रामचरितमानस की भूमिका में वे अपनी दीन प्रकृति का इस प्रकार उल्लेख करते हैं--- छमिहहिं सजन मोरि ढिठाई । सुनिइहिं बाल-बेचन मन लाई ।। कनि न होहुँ, नई बचन:प्रवीन । सकल कला सत्र विद्या हीन् । अपने इष्टदेव के महत्व के अनुभव से प्रेरित ‘दैन्य' के जो पवित्र उद्गार उनके भक्तिपूर्ण अंतःकरण से निकले हैं वे भक्ति के अभ्यास का मार्ग दिखानेवाले हैं

  • बडो सुख कहत बडे सों, बलि, दीनता ।—तुजसी ।

[ विनय-पत्रिका, २६२ । ]