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रस-मीमांसा

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२१८ रस-मीमांसा (क) जब लगि मैं न दीन, दयालु हैं ; मैं न दः स, तें स्वामी । तब लगि जो दुख सद्देउँ कहेउँ नहिं ज्ञद्यपि अंतरजामी ।। हैं उदार, मैं कृपन ; पतित हैं, हैं पुनीत श्रुति गावै । [ विनय पत्रिका, ११३ 1 ] (ख) राम सों बड़ों है कौन ? म स कौन छोटो ? | राम सों लगे है कौन ? मो से कौन स्त्री ? [विनय-पत्रिका, ७२ । ] भक्तिपूर्ण अंतःकरण से किस प्रकार मान-अपमान का भाव निकल जाता है, देखिएलोग कई पोचु सी न सोचु न सँकोचु मेरे, ब्याह न नरेखी जाति पाँति न चइत हो। तुलसी अकाज काज राम ही के रीझे खीझे। प्रीति की प्रतीति मन मुदित रहत हौं । [विनय-पत्रिका, ७६ ।] ‘मद' नामक अवस्था या तो मद्यपान आदि के कारण होती है अथवा प्रेम की उमंग या अभिमान आदि के कारण। । दांपत्य रति के वेग से उत्पन्न मद के उदाहरण तो लक्षण ग्रंथों में मिलते हैं। पर अभिमान के जोर करने पर भी लोग वहँकी बहँकी बातें करते हैं, भले-बुरे का ध्यान नहीं रखते, किसी की कुछ सुनते नहीं, जो जी में आता है कहतें करते हैं। इससे स्पष्ट है कि 'मद’ गर्व का भी संचारी होकर आता है। यह ते दिखाया ही जा चुका है कि संचारियों के पाँच वर्गों में से प्रथम वर्ग में जो तीन आलंबन-युक्त भाव हैं वे संचारियों के सहित भी आ सकते हैं। | [सहानन्दसभेद मदो मद्योपयोंग नः ।। -मादित्यदर्पगर, २.१४६ । ]