पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२३४

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भावां का वगोंकण 18 जिस ‘जड़ता' का विचार रस-निरूपण में हुआ है वह किसी भाव के उद्रेक से अंतःकरण की बाधात्मक क्रिया का कुछ काल के लिए बंद सा हो जाना है। जैसे, प्रिय के विदेश-गमन का सहसा संवाद पाते ही नायिका की यह दशा हो जाना कि उसे ‘मैं कहाँ हूँ, आसपास कौन बैठा है, क्या कहूता है, क्या करता हैं इत्यादि का कुछ भी ज्ञान न रहे। इसे मानसिक स्तंभ कह सकते हैं। इसके साथ ही शरीर-स्तंभ भी होता है अथवा यों काहिए कि स्तंभ' ही के दो पक्ष होते हैं—एक मानसिक और एक शारीरिक । इनमें से प्रथम तो संचारियों की कोटि में रखा गया और द्वितीय अनुभाव के भीतर डाल दिया गया। अब पूछिए कि क्यों एक प्रकार का स्तंभ तो संचारियों में रखा गया और दूसरे प्रकार का सात्त्विक में । इसका कारण विवेचन करने पर यही प्रतीत होता है कि सात्त्विक अनुभाव में वहीं वस्तु रखी गई हैं जो . बाहर शरीर पर लक्षित हो। मानसिक अवस्था स्वयं गोचर नहीं होती उसका कोई चिह्न या संकेत गोचर होता है। ‘अनुभाव किसी आव’ का सूचक होता है अतः मानसिक अवस्था जो सूच्य हुआ करती है वह सूचकों में नहीं रखी गई, संचारियों में रखी गई। ‘जड़ता का ही एक हुलका रूप 'बुद्धिमांद्य' है जो किसी भाव की समुपस्थिति के कारण भी थोड़ी देर के लिये हो सकता है और स्थायी दशा में प्रकृतिस्थ भी देखा जाता है। शोक या विषाद के समय कभी कभी किसी की कही हुई साधारण बात भी समझ में नहीं आती। किसी ‘भाव के संचांरी के रूप में जड़ता के इस हलके रूप पर चाहे उतना ध्यान न दिया जाय। पर प्रकृतिस्थ दशा में यह हास्य के आलंबन की रूप-योजना में बहुत काम आता है। बेवकूफों पर हँसने का राज बहुत पुराना