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रस-मीमांसा

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२३० इस-मीमांसा हैं, इसी से बहुत से लोग सिर्फ दूसरों को हँसाने के लिये बेवकूफ बना करते हैं। नाटकों के विदूषक ऐसे ही बने हुए बेवकूफ हुआ करते हैं। | लज्जा, भय आदि के कारण अपने मन के भाव को छिपाने की प्रवृत्ति जिस अवस्था में हो उसे ‘अवहित्था' कहते हैं ।* उग्रता, सच पूछिए तो, क्रोध का ही एक अवयव है। पर कभी कभी सर्वांगपूर्ण क्रोध के न प्रकट होने पर भी उसकी अविर्भाव होता है। कभी कभी उसी तक बात ख़तम हो जाती है, बाकी बातों की नौबत नहीं आती। किसी किसी का तो किंचित् ‘तीव्र स्वर' से ही काम निकल जाता है--विशेषतः ऊँची पद-मर्यादा वालों का । जिसके वचन या कर्म के कारण उग्रता उत्पन्न होती है उसके हृदय में उस उम्रता के दशन से साधारणतः क्रोध, भय या विषाद का संचार होता है। संचारियों में जब उग्रता ली गई तब ‘मृदुलता' या 'कोमलता' भी क्यों न ली जाय ? जिस प्रकार ‘उग्रता के दर्शन से क्रोध, भय या विषाद का संचार होता है उसी प्रकार जिसके साथ मृदुलता का व्यवहार किया जाता है उसके हृदय में व्यवहार करनेवाले के प्रति प्रेम या श्रद्धा-भक्ति का संचार होता है। प्रेम और करुणा में ये प्रवृत्तियाँ मृदुल हो जाती हैं। अतः श्रृंगार और करुण दोनों रसों में मृदुलता' संचारी होकर आ सकती है। प्रिय और मधुर वचन इसके सूचक होते हैं। अन्य की मनस्तुष्टि का अभिलाष प्रेम

  • एवं वादिनि देषों पाश्र्वं पितुरधोमुखी । तीज व मतपत्राणि गण यामास पावती ।। | - साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, पृष्ठ १३१,

विमला टीका ।।